Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 258 // 1-1-5- 9 (48) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन वणस्सइसत्थसमारंभा-वनस्पति शस्त्र समारम्भ / परिणाया भवंति-परिज्ञात होते हैं / से हु मुणी-वही मुनि / परिणाय कम्मे-परिज्ञात कर्मा हैं / तिबेमि-ऐसा मैं कहता हूं / IV सूत्रार्थ : सुगम होनेसे पूर्वकी तरह समझ लीजीयेगा... इस वनस्पतिमें शस्त्रका समारंभ करनेवालोंने यह सभी आरंभोंकी परिज्ञा नहिं की है, और वनस्पतिमें शस्त्रका आरंभ नहिं करनेवालोंने यह सभी आरंभोंकी परिज्ञा की है... आरंभोंकी परिज्ञा करके मेधावी-साधु स्वयं वनस्पति-शस्त्रका आरंभ न करे, अन्योंके द्वारा वनस्पति-शस्त्रका आरंभ न करवाये, और वनस्पति-शस्त्रका आरंभ करनेवाले अन्यों की अनुमोदना न करे... जिस मुनिने इन वनस्पतिशस्त्रके आरंभोकी परिज्ञा की है, वह हि मुनी परिज्ञातकर्मा है ऐसा मैं (सुधर्मस्वामी) कहता हुं... || 48 // v टीका-अनुवाद : इस वनस्पतिकायमें द्रव्य एवं भाव शस्त्रके समारंभको करनेवालेने इन सभी आरंभोंकी परिज्ञा एवं प्रत्याख्यान नहिं किया है... और इन वनस्पतिकायमें शस्त्रका आरंभ नहिं करनेवालेने इन सभी आरंभोंकी परिज्ञा एवं प्रत्याख्यान कीया है... इत्यादि पूर्वकी तरह स्वयं हि समझ लीजीयेगा... तब तक यावत... वह हि मुनि परिज्ञातकर्मा है... इति में (सुधर्मास्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या, पृथ्वीकाय, एवं अप्काय के अंतिम सूत्र की व्याख्या में विस्तार से कर चुके हैं / अतः यहां चर्वित-चर्वण करना उपयुक्त न समझ कर, विशेष विवेचन नहीं कर रहे हैं / पाठक यथास्थान पर देख लेवें / त्तिबेमि की व्याख्या पूर्ववत् समझें / // शत्रपरिज्ञायां पञ्चमः उद्देशकः समाप्तः // | 勇勇 मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट -परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य