Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ 274 1 - 1 - 6 - 3 (51) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अपेक्षा है-संसार परिभ्रमण की / यह ठीक है कि- सम्यग्दृष्टि, श्रावक एवं साधु भी उपपात, गर्भज आदि जन्मों को ग्रहण करते हैं / परन्तु जब से उन्हें तत्त्व ज्ञान हो जाता है तब से वे संसार परिभमणको बढ़ाते नहीं हैं / यह सत्य है कि तत्त्वज्ञ जन्म लेते भी हैं / परन्तु तत्त्वज्ञ और अतत्त्वज्ञके जन्म लेने में अंतर इतना ही है कि एक का संसार परिमित है और दूसरे का अपरिमित / जब से आत्मा ने सम्यक्त्वका संस्पर्श कर लिया; तब से उसे परिमित संसारी कहा है, संसार का छोर याने किनारा उसके सामने आ गया है / यह ठीक है कि उसे पार करके अपने लक्ष्य स्थान तक पहंचने में उसे कुछ समय लग सकता है और इसके लिए वह अनेक उत्पत्ति स्थानों में जन्म भी ग्रहण कर सकता है / परन्तु उसका जन्म ग्रहण करना, संसार वृद्धिका नहीं, परन्तु संसारको घटानेका, कम करने का ही कारण है / इसके विपरीत अतत्त्वज्ञ व्यक्ति का संसार अपरिमित है / उसके सामने अभी तक कोई स्पष्ट मार्ग नहीं है, जिस पर गति करके वह किनारेको पा सके / अभी तक उसे अपने लक्ष्य स्थान एवं किनारे का भी ज्ञान नहीं है / इस लिए उस का प्रत्येक कार्य, प्रत्येक कदम एवं प्रत्यके जन्म संसारको बढ़ाने वाला है, जन्म-मरण के प्रवाहको प्रवाहमान रखने वाला है / तत्त्वज्ञ और अतत्त्वज्ञ में रहे हुए इसी अंतर को सामने रखकर प्रस्तुत सूत्रमें कहा गया है कि जो मंद है, अतत्त्वज्ञ है, वही संसार परिभ्रमणको बढ़ाता है, बार-बार इन उत्पत्ति स्थानों में जन्म-मरण करता है / इस परिभ्रमण से बचनेके लिए क्या करना चाहिए ? इस प्रश्न का समाधान, सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे करेंगे... I सूत्र || 3 || || 51 // निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं, सव्वेसिं पाणाणं, सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं, अस्सायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं त्ति बेमि, तसंति पाणा पदिसो दिसासु य // 51 // II संस्कृत-छाया : निाय, प्रतिलिख्य, प्रत्येकं परिनिर्वाणं, सर्वेषां प्राणिनां, सर्वेषां भूतानां, सर्वेषां जीवानां, सर्वेषां सत्त्वानाम, असातं अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखं इति बवीमि / अस्यन्ति प्राणिनः प्रदिक्ष दितु च // 51 // III शब्दार्थ : निज्झाइत्ता-चिन्तन करके / पडि लेहित्ता-देखकर / पत्तेयं-प्रत्येक जीव / परिनिव्वाणं-सुख के इच्छुक हैं / सव्वेसिं-सर्व / पाणाणं-प्राणियों को / सव्वेसिं भूयाणं