Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 248 卐१-१-५-६ (४५)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : प्रमत्तः अगारं आवसति // 45 / / III शब्दार्थ : ' पमत्ते-प्रमादी-विषयों में आसक्त व्यक्ति / अगारमावसे-घर में जा वसता है / IV सूत्रार्थ : प्रमादी घरमें निवास करता है // 45 // v टीका-अनुवाद : विषय-विषसे मूर्छित प्रमादी वह मनुष्य घरमें निवास करता है... शब्द आदि विषयसुखमें प्रमादी ऐसा वह द्रव्यलिंगधारी साधु विरति स्वरूप भावलिंगके अभावमें गृहस्थ हि है... अन्य मतवाले हमेशा अन्यथावादी हैं, और अन्यथाकारी भी हैं, यह बात सुत्रकार महर्षि / आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में विषयों में आसक्त रहने वाले साधु की क्या स्थिति होती है, इस बात का स्पष्ट निरूपण किया गया है / जो साधक त्रियोग का गोपन नहीं करते हुए, विषयोंमें प्रवृत्त रहता है, वह संयम से पराङ्मुख होकर घर-गृहस्थ में फिर से जा फंसता है। दूसरी बात यह है कि द्रव्य वेशका परित्याग न करने पर भी उसे भाव साधुत्व के अभाव में गृहस्थ ही कहा है / क्योंकि- उसकी भावना संयम से, साधुता से विमुख हो चुकी है, इस लिए सूत्रकार ने उसके लिए ‘अगारमावसति' शब्द का प्रयोग किया है / जब हम आध्यात्मिक दृष्टि से प्रस्तुत सूत्र पर विचार करते हैं, तो गृहवास का अर्थ होता है-क्रोध, मान, माया, लोभ एवं राग-द्वेष रूप दोषों में निवास करना और प्रमत्त व्यक्ति या शब्दादि विषयों में आसक्त व्यक्तिकी प्रवृत्ति सदा राग-द्वेष एवं कषायों में होती है / अत: वह द्रव्य से घर नहीं रखते हुए भी सदा घर में ही निवास करता है / उसका कषाय युक्त घर सदा उसके साथ रहता है / इस लिए साधकको विषयों में आसक्त नहीं रहना चाहिए / विषयों में आसक्त नहीं रहने का स्पष्ट अर्थ है, कि वनस्पतिकायिक जीवोंके आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। जो विषयों में आसक्त रहता है, वह वनस्पति के आरंभ में भी संलग्न रहता है और