Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका # 1 - 1 - 5 - 4 (43); 245 होता / इससे स्पष्ट है कि विषयों को देखने एवं ग्रहण करने मात्र से कर्म का बन्ध नहीं होता। और न दखने मात्र से संसार परिभ्रमण का प्रवाह ही बढ़ता है / कर्म बन्ध का कारण उन विषयों को ग्रहण करना मात्र नहीं, अपितु उनमें आसक्त होना है अर्थात् उनमें राग-द्वेष करना है / हम पहले देख चुके हैं कि कर्म बन्ध का मूल रागद्वेष एवं आसक्ति है / इसी वैभाविक परिणति के कारण आत्मा कर्मों के साथ आबद्ध होकर संसार में परिभमण करती है और विभिन्न विषयों में आसक्त होकर शुभाशुभ कर्मों का उपार्जन करके स्वर्ग-नरक आदि गतियों में चक्कर काटती है / इसी बात को सूत्रकार प्रस्तुत सूत्र में “मुच्छमाणे रुवेसु मुच्छति' वाक्य के द्वारा अभिव्यक्त किया है / इससे यह स्पष्ट हो गया है कि कर्म बन्ध का कारण विषयों का अवलोकन एवं ग्रहण मात्र नहीं, परन्तु उसमें रही हुई आसक्ति ही है / इस बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 4 // // 4 // एस लोए वियाहिए, एत्थ अगुत्ते अणाणाए || 43 / / II संस्कृत-छाया : एष: लोकः व्याख्यातः, एतस्मिन् अगुप्तः अनाज्ञायाम् // 43 / / III शब्दार्थ : - एस-यह पांच विषय रूप / लोए-लोक / वियाहिए-कहा गया है / एत्थ-इसमें जो। अगुत्ते-अगुप्त है अथवा शब्दादि विषयों में आसक्त हो रहा है वह / अणाणाए-आज्ञा में नहीं IV सूत्रार्थ : यह शब्दादि विषयलोक कहा, इन शब्दादिमें जो अगुप्त है, वह आज्ञामें नहि है // 43 / / v टीका-अनुवाद : जो देखा जाता है या जाना जाता है वह लोक, यह शब्दादि रूप-गंध-रस-स्पर्श एवं शब्द-विषय स्वरूप लोकका स्वरूप कहा... इन शब्दादि विषयोंमें जो साधु मन-वचन-कायासे गुप्त नहिं है, अर्थात मनसे राग या द्वेष करता है. वचनसे शब्दादिकी प्रार्थना करता है. और कायासे शब्दादि विषय जहां है उस स्थान में जाता है... इस प्रकार जो गुप्त नहिं है वह जिनेश्वरके वचनानुसार आज्ञामें नहिं है...