Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 218 1 - 1 - 4 - 6 (39) + श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन या अनागारों से सुन कर, सम्यक्बोध प्राप्त हुए किसी किसी व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि- यह अग्नि समारंभ अष्ट कर्मो की गांठ है, यह मोह का कारण है, यह मृत्यु का कारण है और यह नरक का भी कारण है / फिर भी विषय-भोगों में मूर्छित-आसक्त व्यक्ति अग्नि काय के समारम्भ से निवृत्त नहीं होता / वह प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न शस्त्रों के द्वारा अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता हुआ, अन्य जीवों की भी हिंसा करता हैं / V टीका-अनुवाद : इस सूत्र में कहे गये अर्थका सारांश कहतें हैं... कि- हे शिष्य ! अपने शास्त्रमें कहे गये अनुष्ठानको करनेवाले अथवा पापाचरणसे लज्जाको पानेवाले विभिन्न शाक्य आदि मतवाले साधुओंको देखो ! वे कहतें हैं कि- "हम अणगार हैं" और विरूप याने कठोर प्रकारके शत्रोंसे अग्निकर्मके समारंभके द्वारा अग्निशस्त्रका आरंभ करनेवाले वे, अन्य अनेक-प्रकारके प्राणीओंकी हिंसा करतें हैं... यहां परमात्माने परिज्ञा कही है, कि- इसी असार जीवितके वंदनमानन एवं पजनके लिये तथा जन्म एवं मरणसे छटनेके लिये और दुःखोंके विनाशके लिये वे शाययादि साधु स्वयं हि अग्निशस्त्रका आरंभ करतें है, अन्योंके द्वारा अग्निशस्त्रका समारंभ करवातें है, और अग्निशस्त्रका समारंभ करनेवालोंकी अनुमोदना करतें है... और यह अग्निका समारंभ, सुखार्थी ऐसे उनको इस लोकमें एवं परलोकमें अहितके लिये होता है, और अबोधिके लिये होता है... अग्निका समारंभ पाप के लिये होता है ऐसा जानकर, जो मनुष्य सम्यग् दर्शनादि संयम स्वीकार कर और तीर्थंकर या साधुओंके मुखसे सुनकर कितनेक साधुओंने यह जाना है कि- यह अग्निसमारंभ कर्मबंधका कारण होनेसे ग्रंथ है, तथा मोह है, मार है एवं नरक है, अग्निके समारंभमें आसक्त मनुष्य, विभिन्न प्रकारके शस्त्रोंसे अग्निका समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकारके प्राणीओंकी हिंसा करता है... अग्निके समारंभमें प्रवृत्त अज्ञानी लोक, विविध प्रकारके प्राणीओंकी हिंसा करतें है यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र पृथ्वीकाय और अप्काय के प्रकरण में सूत्र 16, 17 और 24 के सूत्र की तरह ही है / केवल इतना ही अन्तर है कि- वहां पृथ्वीकाय एवं अप्काय का वर्णन है और यहां तेजस्काय समझना चाहिए / शेष व्याख्या उसी प्रकार होने से, वहां से समझीएगा। अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे, अग्निके समारम्भ से अन्य जीवों की हिंसा होती है, उसका उल्लेख करेंगे...