Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी-टीका 卐१-१-५-१ (40) 231 - प्रश्न- तो फिर वो कैसे मालूम हो ? उत्तर- अनंतकाय = बादर निगोदके शरीर आंखोसे दिखतें हैं, सुक्ष्म निगोदके शरीर नहिं दिखतें... क्योंकि- उन्हे सूक्ष्म नाम कर्मका उदय है, अतः अनंत-जीवके शरीर, सूक्ष्म निगोद आंखोसे नहि दिखाई देतें... और निगोद निश्चित हि अनंतजीवोके समूह स्वरूप हि होतें हैं... कहा भी है कि- इस संपूर्ण विश्वमें निगोदके (साधारण = अनंतकाय स्वरूप वनस्पतिकाय) के असंख्य गोले हैं, और एक-एक गोलेमें असंख्य निगोद (अनंतकाय-शरीर) होतें हैं, और एक-एक निगोदमें अनंत-अनंत जीव होतें हैं... इस प्रकार वनस्पतिकायके वृक्ष आदि एवं प्रत्येक आदि भेदोंसे तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्शके भेद-प्रभेदसे हजारों भेद होते हैं, और संख्यात अर्थात् 10 लाख + 14 लाख = 24 लाख प्रकारकी योनि वनस्पतिकायकी जानीयेगा... वे इस प्रकार- वनस्पतिकायकी योनि संवृत्त होती है, और वह भी सचित्त अचित्त एवं मिश्र भेदसे तीन प्रकारकी होती है, तथा शीत, उष्ण एवं मिश्र भेदसे एक-एकके तीन भेद होतें हैं... 1. प्रत्येक वनस्पतिकायकी दश लाख योनियां होती हैं, 2. साधारणं वनस्पतिकायकी चौदह (14) लाख योनियां होती हैं... और दोनों प्रकारकी वनस्पतिकी कुलकोटि पच्चीस लाख (क्रोड) होती हैं... इस प्रकार विधान याने भेद-द्वार कहने के बाद, अब परिमाणद्वार कहतें हैं... उनमें पहले सूक्ष्म अनंतकायका परिमाण कहतें हैं... नि. 144 जैसे कि- कोइक मनुष्य धान्य (अनाज) मापनेके प्रस्थ-कुडव आदिसे सभी धान्य माप कर अन्य जगह पर रखे, उसी प्रकार कोइक मनुष्य साधारण वनस्पतिकायको लोक-प्रमाण कुडवसे मापकर अन्य जगह पर रखे, तब इस प्रकार माप-गिनती करने में अनंत लोक हो जाय... अब बादर निगोदका परिमाण कहतें हैं... नि. 145 घनीकृत संपूर्ण लोकके प्रतरके असंख्येय भागमें रहे हुए राशि-संख्या प्रमाण असंख्य पर्याप्त बादर निगोद होतें हैं... और वे पर्याप्त प्रत्येक बादर वनस्पतिकायके जीवोंसे असंख्यगुण अधिक होतें हैं, तथा शेष तीन राशिमेंसे एक एक राशि असंख्य लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण