Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 228 1 - 1 - 5 - 1 (40) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब जो लोग वनस्पतिकायमें जीव नहिं मानतें उनके आगे वनस्पतिमें जीवत्वकी सिद्धि करते हुए नियुक्तिकार स्वयं गाथासे कहतें हैं... नि. 135 यह प्रत्यक्ष दिखाइ जा रहे वनस्पति-वृक्ष स्वरूप शरीरसे वनस्पतिकाय जीव प्रत्यक्ष (साक्षात्) हि है... वे इस प्रकार- यह विविध प्रकारके आकार स्वरूप वनस्पति-वृक्षके जीवोंके शरीर जीवके प्रयत्न विना असंभव हि है... अनुमान प्रयोग इस प्रकार है... 1. हाथ-पाउं आदिके समूहकी तरह तथा इंद्रिय आदिकी उपलब्धि (प्राप्ति) के कारणसे वृक्ष जीवका हि शरीर है... 2. हाथ-पाउं आदिके समूहकी तरह तथा जीवके शरीर होनेके कारणसे वृक्ष संचित होतें 3. सोये हुए पुरुषकी तरह और अस्पष्ट चेतनावाले होनेके कारणसे वृक्ष, मंद (अल्प) ज्ञान-सुख आदिवाले होतें हैं..... कहा भी है कि- इंद्रिय आदिकी प्राप्तिके कारणसे तथा हाथ-पाउं आदिके समूहके तरह हि वृक्ष आदि वनस्पति, जीवोंके हि शरीर हैं... तथा शरीरवाले होनेके कारणसे सोये हुए मनुष्य आदिकी तरह अल्पज्ञान एवं अल्पसुखवाले वनस्पति सजीव हि है... अब जो सूक्ष्म वनस्पतिकाय हैं, वे आंखोसे नहिं दिखाई देतें, वे तो केवल प्रभु आज्ञा = वचनसे हि माने जाते हैं, और राग-द्वेषके अभाववाले वीतराग सर्वज्ञ प्रभुके वचनको हि आज्ञा कही गई है... अब साधारण वनस्पतिकायका लक्षण कहतें हैं... नि. 16 शरीर और आहार आदि जिन्होका एक हो वह साधारण... जहां अनंत जीवोंका एक हि शरीर हो, तथा आहार और श्वासोच्छ्वास भी एक साथ हि सभी जीवोंका हो, वह साधारण वनस्पतिकाय... सारांश यह है कि- एक जीव जब आहार ले तब सभी जीव आहार लेतें हैं और एक जीव जब श्वास ले तब सभीका श्वास लेना होता है, वैसे हि एक साथ सभीका निःश्वास होता है... इसी हि बातकी स्पष्टता करते हुए कहते हैं कि