Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐 1 - 1 - 1 - 3 // 75 ढिंढोरा पीटना कि 'मेरी माता-वन्ध्या है' किन्तु, यह वाक्य सत्य से परे है, उसी तरह 'मैं नहीं हूं' या 'मेरी आत्मा का अस्तित्व नहीं है' कहना भी सत्य एवं अनुभव से विपरीत है। इसके अतिरिक्त हम देखते हैं कि हमारे शरीर की अवस्थाएं प्रतिक्षण बदलती रहती हैं / बाल्यावस्था से यौवनकाल सर्वथा भिन्न भिन्न नज़र आता है और बुढ़ापा, बाल एवं यौवन दोनों कालों को ही पछाड़ देता है, उस समय शरीर की अवस्था एकदम बदल जाती है / शरीर में इतना बड़ा भारी परिवर्तन होने पर भी तीनों काल में किए गए कार्यों की अनुभूति में कोई अंतर नहीं आता / यदि शरीर ही आत्मा है या आत्मा क्षणिक है तो शरीर के परिवर्तन के साथ अनुभूति में भी परिवर्तन आना चाहिए / पुराणे शरीर की समाप्ति के साथ-साथ पुरातन अनुभवों का भी जनाजा निकल जाना चाहिये / परंतु ऐसा होता नहीं है। तीनों काल में शारीरिक परिवर्तन होने पर भी आत्मानुभूति में एकरूपता बनी रहती है / उससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनंत-अनंत भूतकाल में अनंत बार अभिनव-अभिनव शरीरों को धारण करने पर भी आत्मा के अस्तित्व में कोई अंतर नहीं आया और न हि भविष्य में अन्तर आएगा / जब तक रागद्वेष एवं कर्म-बन्ध का प्रवाह चालू है, तब तक शरीरों का परिवर्तन होता रहेगा / एक काल के बाद दूसरे काल में या एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में शरीर बदल जाएगा, परंतु शरीरके बदलने से आत्मा में परिवर्तन नहीं आता / क्योंकि- तीनों काल में यह आत्मा स्वरूप से तो एक रूप हि रहती है। इस से आत्मा का अस्तित्व स्पष्टतः प्रमाणित होता है / इसमें शंकासंदेह को ज़रा भी अवकाश नहीं है / प्रस्तुत सूत्र में ‘एवं' शब्द 'इसी प्रकार' अर्थ का बोधक है / यह पद पिछले सूत्र से सम्बद्ध है / जैसे पिछले सूत्र में बताया गया है कि 'किन्ही जीवों को ज्ञान नहीं होता।' उसी तरह प्रस्तुत सूत्र में भी ‘एवमेगेसिं' आदि वाक्य का भी यही तात्पर्य है कि कई एक जीवों को यह परिज्ञान नहीं होता कि 'मैं उत्पत्तिशील हूं या नहीं ? में कहां से आया हूं और कहां जाऊंगा ?' इत्यादी / उसी उद्देश्य को लेकर सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में ‘एवं' पद का प्रयोग किया है / ववाइए' का अर्थ है औपपातिक / औपपातिक शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है / देव और नारक को भी औपपातिक कहते हैं / देव शय्या और नरक-कुम्भी जिस में देव और नारकी जन्म ग्रहण करते हैं-उसे उपपात कहते हैं / उपपात से उत्पन्न प्राणी औपपातिक कहलाते हैं / उक्त व्याख्या के अनुसार औपपातिक शब्द देव और नारकी का परिचायक है / परन्तु जब उक्त शब्द की इस प्रकार व्याख्या करते हैं: "उपपातः प्रादुर्भावो जन्मान्तरसंक्रांतिः उपपाते भवः औपपातिकः-" -शीलांकाचार्य