Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 1 - 13 // 119 v टीका-अनुवाद : संपूर्ण धर्मास्तिकायवाले आकाशप्रदेशों (लोकाकाश) में पूर्वोक्त 3x3 = 9 x 3 = 27 प्रकारकी क्रियाएं होती है... इनसे अधिक कोई भी क्रिया नहिं है... वे इस प्रकार-स्व, पर, उभय (दोनों) तथा इस जन्म, आगामी जन्म तथा भूतकाल भविष्यत्काल वर्तमानकाल, कृत कारित और अनुमोदन द्वारा आरंभ कीये जाते है... वे सभी पूर्व कहे हुए है, वे सभी यहां स्वयं समझ लीजीयेगा... . इस प्रकार सामान्यसे जीवका अस्तित्व सिद्ध करके, उनका मर्दन (पीडा) वध करनेवाली क्रियाओंसे कर्म-बंध होता है, ऐसा कहकर उपसंहार द्वारा विरतिका प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : . क्रिया के स्वरूप एवं भेदों का वर्णन पहले किया जा चुका है / प्रस्तुत सूत्र में दृढ़ता के साथ पूर्व सूत्रों में वर्णित विषय का समर्थन किया गया है और साधक को प्रेरित किया गया है कि वह क्रियाओं के वास्तविक स्वरूप को समझकर उसमें विवेक पूर्वक गति करे अर्थात् पहले हेय एवं उपादेय का भेद करके हेय को सर्वथा त्यागकर साधना में तेजस्विता लाने वाली, साध्य के निकट पहुंचाने वाली उपादेय क्रियाओं को स्वीकार करें / इसी लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में बताया है कि- कर्म-बन्ध की हेतुभूत इतनी ही क्रियाएं हैं / साधक को इनका परिज्ञान होना चाहिए। क्योंकि- ज्ञान होने पर ही साधक उनसे विरत हो सकेगा, अतः उनके स्वरूप आदि का वर्णन करके, सूत्रकार महर्षि, अब उन सावध क्रियाओं से विरत होने की बात, इस उद्देशक के अंतिम सूत्र में कहेगें... I सूत्र | // 13 // जस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिणाया भवंति, से ह मुणी परिण्णायकम्मे त्तिबेमि // 13 // II संस्कृत-छाया : यस्य एते लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति सः खलु मुनिः परिज्ञात-कर्मा / इति ब्रवीमि // 13 // III शब्दार्थ : जस्स-जिस मुमुक्षु को / एते-ये (पूर्वोक्त) / कम्मसभारम्भा-कर्म समारम्भ-क्रिया विशेष / परिण्णाया-परिज्ञात / भवंति-होते हैं / से-वह / मुणी-मुनि / परिण्णाय कम्मे