Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी-टीका // 1-1-3 - 5 (23) // 175 चोर न हो उसे चोर कहना... यहां ऐसा कहे कि- अप्काय जीव नहिं है, वह तो केवल घी, तैल की तरह पदार्थ मात्र हि है... ऐसा कहना, वह जुठा आरोप हि है... हाथी, घोडे आदि जीवों भी उपकरण हि है... यहां प्रश्न होता है कि- अजीवको जीव कहना यही तो यहां अभ्याख्यान हि तो है न ? उत्तर- ना, ऐसा नहिं है, क्योंकि- हमने पहेलेसे हि अपकायमें जीवकी सिद्धि कर दी है... जैसे कि- इस शरीरका मैं आत्मा अधिष्ठायक हं, और शरीरसे भिन्न ऐसा मैं आत्मा हुं... इसी हि प्रकार- अव्यक्त चेतनावाले अप्काय सचेतन हि है, ऐसी हमने पहले से हि सिद्धि करी दी है... अतः सिद्ध का कथन करना वह अभ्याख्यान नहिं है... यदि ऐसा करतें हैं तब शरीरके अधिष्ठाता आत्मा का भी अभ्याख्यान करना चाहिये... किंतु ऐसा करना उचित नहिं है... यह बात कहते हैं... शरीरमें रहे हुए, अहं पदसे अनुभव सिद्ध तथा ज्ञान गुणसे अभिन्न (युक्त) ऐसे आत्माका अपलाप न करें प्रश्न- ऐसा कैसे जान शकतें हैं कि- शरीरके अधिष्ठाता आत्मा है ? उत्तर- यह बात हम पहले कह चुके हैं, किंतु आप याद नहिं रख शकते, अतः दुबारा कहतें हैं कि- . (1) यह शरीर कफ रुधिर (लोही) अंग एवं उपांग आदिके अभिसंधिके साथ परिणमनसे किसी (जीव) ने भी अन्न आदिकी तरह आहृत (बनाया) है... (2) तथा इसी शरीरका अन्न-मलकी तरह विसर्जन भी सर्जनकी तरह कोइक . . अभिसंधीवाला (जीव) करता है... (3) ज्ञान के साथ होनेवाला स्पंदन, आपके वचनके स्पंदनकी तरह स्पंदन स्वरूप होनेसे भांति नहिं है... अर्थात् सत्य हि है... (4) तथा शरीरमें रहे हए अधिष्ठाताके व्यापारवाली इंद्रियां दान देनेवालेकी तरह साधन स्वरूप होनेसे क्रियाशील होती है इसी प्रकार से कुतर्कोकी श्रृंखलाको स्याद्वाद-कुहाडीसे छेदीयेगा... इस प्रकार हेतुओंसे आत्माकी पहचान होनेके बाद शुभ और अशुभ कर्मफलोंको भुगतनेवाली आत्मा का अपलाप न करें... ऐसा होते हुए भी जो अज्ञानी कुतर्क स्वरूप तिमिरसे नष्ट ज्ञान चक्षुवाला जीव अप्कायजीवोंका अपलाप करता है वह (मनुष्य) सभी प्रमाणोंसे सिद्ध ऐसे आत्माका भी अपलाप करता है... और जो अज्ञानी जीव "मैं नहिं हूं" इस प्रकार आत्माका अपलाप करता है, वह अपकाय