Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 176 1 - 1 - 3 - 5 (23) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन जीवोंका भी अपलाप करता है... क्योंकि- हाथ-पाउं आदि अवयवोंसे युक्त शरीरमें रहनेवाले स्पष्ट चिह्नोंवाले आत्माका अपलाप करता है, वह अस्पष्ट (अव्यक्त) चेतनावाले अप्काय-जीवोंका तो अपलाप करेगा हि... इस प्रकार अनेक दोषोंकी संभावना होती है, अतः इन अप्काय-जीवोंका अपलाप न करें... ऐसा सोच कर साधु-लोग अपकाय-जीवोंका आरंभ नहिं करतें... शाक्य आदि मतवाले साधु-लोग जो विपरीत आचरणा करतें हैं, वह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्रसे कहेंगे... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में अपनी आत्मा एवं अप्कायिक जीवों की आत्मा के साथ तुलना करके अप्काय में चेतना है, इस बात को सिद्ध किया है / यह हम पहले देख चुके हैं कि आत्मस्वरूप की दृष्टि से संसार की समस्त आत्माएं एक समान हैं / अप्काय में स्थित आत्मा में एवं मनुष्य शरीर में परिलिक्षित होने वाली आत्मा में स्वरूप की दृष्टि से कोई अंतर नहीं है / यहां तक कि सर्व कर्मों से मुक्त सिद्धों की शुद्ध आत्मा का स्वरूप भी वैसा ही है / आत्मस्वरूप की दृष्टि से किसी आत्मा में अन्तर नहीं है, अन्तर केवल चेतना के विकास का है / अप्कायिक जीवों की अपेक्षा मनुष्य की चेतना अधिक विकसित है और सिद्धों में आत्मा का पूर्ण विकास हो चुका है, वहां आत्मा की शुद्ध ज्योति पूर्ण रूप से प्रकाशमान है, आवरण की कालिमा को ज़रा भी अवकाश नहीं है / इस तरह स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएं समान हैं, किन्तु परस्पर भेद, केवल विकास की अपेक्षा से है / जैसे जवाहरात की दृष्टि से सभी हीरे समान गुण वाले हैं - भले ही वे खदान में मिट्टी से लिपटे हों, या जौहरी की दुकन पर पड़े हों या स्वर्ण आभूषण में जड़े हों, स्वरूप की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है / जौहरी की दृष्टि से सभी हीरे मूल्यवान हैं / भेद है बाहरी विकास को देखने-परखने वाली दृष्टि का / उसकी दृष्टि में खदान से निकले हुए हीरे की अपेक्षा जौहरी की दुकान पर पड़े सुघड़ हीरे का अधिक मूल्य है और उससे भी अधिक मूल्यवान है आभूषण में जड़ा हुआ हीरा / तो यह सारा भेद बाहरी दृष्टि का है / अन्तर दृष्टि से हीरा हर दशा में मूल्यवान है / कीमती है और जौहरी की अन्तर दृष्टि उसे पत्थर के रूप में भी पहचान लेती है / यही स्थिति आत्मा के संबन्ध में है / स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएं समान हैं / हम भले ही बाहरी दृष्टि से कुछ अल्प विकसित आत्माओं की चेतना को स्पष्ट रूप से न देख सकें, परन्तु सर्वज्ञ-सर्वदर्शी पुरुषों की आत्म दृष्टि, उसे स्पष्ट स्पष्टतया अवलोकन करती है. इसलिए हमें उसके अस्तित्व का अपलाप नहीं करना चाहिए / क्योंकि आत्म-स्वरूप की दृष्टि से उसकी और हमारी आत्मा में कोई अन्तर नहीं है / अतः अप्कायिक जीवों की आत्मा का अपलाप