Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 3 - 7 (25) // 181 शाक्य आदि मतवाले जलमें रहे हुए बेइंद्रिय आदि जीवोंका स्वीकार करते हैं, किंतु जल हि जीवका शरीर है ऐसा नहि मानतें... यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार और वीर्याचार, इस तरह पांचो आचार का वर्णन कर दिया है / अप्कायिक जीवों की सजीवता का सम्यक्बोध प्राप्त करना, ज्ञानाचार है; उस की सजीवता पर दृढ़ विश्वास एवं श्रद्धा रखना दर्शनाचार है, उसकी हिंसा का परित्याग करना चारित्राचार है और उनकी रक्षा के लिए धर्मध्यान स्वरूप तपश्चर्या में प्रयत्न करना वीर्याचार है / इस तरह एक सूत्र में पंचाचार का समन्वय कर दिया है / यह पंचाचार ही संयम के आधार हैं / इन से संयुक्त जीवन ही मुनि जीवन है / कुछ लोग अप्कायिक जीवों के आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होकर भी अपने आप को अनगार कहते हैं / वे भले ही अपने आपको कुछ भी क्यों न कहें ? परन्तु वास्तव में वे अनगार नही हैं / क्योंकि अभी तक उन्हें न तो अप्काय में जीवत्व का बोध है और न वे उसके आरम्भसमारम्भ के त्यागी है / अतः वे अभी अनगारत्व से बहुत दूर है / ‘से बेमि' में प्रयुक्त हुआ 'से' शब्द आत्मा (अपने आप) का बोधक है / इसलिए 'से बेमि' का तात्पर्य हुआ कि- 'मैं कहता हूं।' ___ अप्काय भी पृथ्वीकाय की तरह, प्रत्येक शरीरी, असंख्यात जीवों के पिण्ड रूप एवं अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगहना वाले हैं / इस लिए उनके स्वरूप को भली-भांति जानकर मुमुक्षु को सदा उसकी हिंसा से बचना चाहिए / अप्कायिक आरम्भ-समारम्भ के कार्यों से सदा दूर रहना चाहिए / जिससे उनका संयम भी शुद्ध रहेगा और उन्हें आध्यात्मिक शान्ति भी प्राप्त होगी / अन्य दार्शनिक जल के आश्रित रहे हुए जीवों को तो मानते हैं, परन्तु जल को सजीव नहीं मानतें / अतः इस बात की स्पष्टता के लिए, सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... I सूत्र // 7 // // 25 // इहं च खलु भो ! अणगाराणं उदयजीवा वियाहिया, सत्थं च इत्थं अणुवीइ पास // 25 // II संस्कृत-छाया : इह च खल भोः ! अनगाराणां उदकजीवा: व्याख्याताः, शस्त्रं च एतस्मिन अनुविचिन्त्य पश्य // 25 //