Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 208 // 1-1-4-2(33) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अब गत-प्रत्यागत लक्षणसे अविनाभावित्व बताने के लिये विपरीत क्रमसे सूत्रके अवयवोंका परामर्श = पर्यालोचन करतें हैं... जो मुनि अशस्त्र याने संयममें निपुणमति है वह हि दीर्घलोकशस्त्र (अग्नि) का क्षेत्रज्ञ है, अथवा तो संयम पूर्वक अग्निका (समारंभका) खेदज्ञ है... क्योंकि- अग्निके खेदज्ञता वाला हि संयमानुष्ठान है... यदि ऐसा न हो तब संयमानुष्ठान असंभव हि है... इस प्रकार अन्वय एवं व्यतिरेकसे अथवा तो गत-प्रत्यागत प्रकारसे संयमानुष्ठानकी सिद्धि की है... अब ऐसा संयमानुष्ठान किन्होंने प्राप्त किया ? इस प्रश्नके उत्तरमें, सूत्रकार महर्षि आगेका सूत्र कहेंगे... VI सूत्रसार : दुनिया में अनेक तरह के शस्त्र हैं / परन्तु अग्नि-शस्त्र अन्य शस्त्रों से अधिक तीक्ष्ण एवं भयावह है / जितनी व्यापक हानि यह अग्नि करता है, उतनी अन्य किसी शस्त्र से नहीं होती / जरा सी असावधानी से कहीं आग की चिनगारी गिर पड़े, तो सब स्वाहा कर देती है, इसकी लपेट में आने वाला सजीव-निर्जीव कोई भी पदार्थ सुरक्षित नहीं रहता। जब यह भीषण रूप धारण कर लेती है, तो वृक्ष मकान, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी; मनुष्य जो भी इसकी लपेट में आ जाता है, वह जल कर राख हो जाता है / अग्नि किसी को भी नहीं छोड़ती, गीलेसखे. सजीव-निर्जीव सब इसकी लपटों में भस्म हो जाते हैं / अतः आग को सर्वभक्षी कहने की लोकपरम्परा बिल्कुल सत्य है / और इसी कारण अग्नि को सबसे तीक्ष्ण एवं भयानक शस्त्र माना गया है / आगम में भी कहा गया है कि अग्नि के समान अन्य शस्त्र नहीं है / यह पथ्वी एवं अप्कायिक जीवों के शस्त्र के साथ वनस्पति के जीवों का भी शस्त्र है / और वनस्पति के लिए इसका उपयोग अधिक किया जाता है / घरों में शाक-भाजी बनाने एवं खानेपकाने के लिए इसी अग्नि का उपयोग किया जाता है और वांस एवं चन्दन के गहन वनों में उनकी पारस्परिक रगड़ एवं टक्कर से प्रायः आग का प्रकोप होता रहता है / इस लिए इसे वनस्पतिकाय का शस्त्र रूप विशेषण से अभिव्यक्त किया गया है / प्रस्तुत सूत्र में अग्नि शब्द का प्रयोग न करके 'दीर्घलोक - शखं' इतने लम्बे शब्द का जो प्रयोग किया है, उसके पीछे एक विशेषता रही हुई है / वह यह है कि- अग्नि छह (E) कायजीवों का शस्त्र है / जब यह प्रज्वलित होती है, तो अपनी लपेट में आने वाले किसी भी प्राणी को सुरक्षित नही रहने देती / और जब यह अग्नि जंगल में लगती है, तो बड़े-बड़े वृक्षों को जलाकर भस्म कर देती है / और वृक्षके आश्रय में रहने वाले सभी स्थावर एवं प्रस जीवों को भस्म कर देती है, जैसे कि- वृक्ष के उपर कृमि, पिपीलिका (चिंटीयां) भ्रमर, पक्षी आदि त्रस जीव पाए जाते हैं, और उसकी कोटर एवं जड़ों में पृथ्वीकायिक और ओस के रूप