Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan

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Page 271
________________ 212 1-1-4-3 (38) श्री राजे. इयतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है कि- पूर्व सूत्र में कथित मार्ग, वीतराग एवं सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित है, उन्होंने अग्निकाय को शस्त्र रूप में और संयम को अशस्त्र रूप में देखा है / अस्तु, प्रस्तुत सूत्र, पूर्व सूत्र का परिपोषक है, साधक के मन में जगे हुए विश्वास को दृढ़ करने वाला है और आचार में तेजस्विता लाने वाला है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'वीर' शब्द तीर्थंकर एवं सामान्य केवलज्ञानी पुरुषों का परिबोधक है / क्योंकि वे राग-द्वेष एवं कषाय सप प्रबल योद्धाओं को परास्त कर चुके हैं, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य पर पड़े हुए आवरण सर्वथा अनावृत्त करके पूर्ण ज्ञान, दर्शन सुख एवं वीर्य शक्ति को प्रकट कर चुके हैं अतः वस्तुत: वे ही वीर कहलाने योग्य है और सर्वज्ञ होने के कारण वस्तु के वास्तविक स्वरूप बताने में भी वे ही समर्थ हैं / इसलिए सूत्रकार ने वीर शब्द का तीर्थंकर एवं सामान्य केवल ज्ञानी के लिए प्रयोग करके इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि पूर्व सूत्र में कथित मार्ग, सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी पुरुषों द्वारा अवलोकित है / केवल अवलोकित ही नहीं, आचरित भी है / यों कहना चाहिए कि- पूर्व सूत्र में कथित मार्ग पर गतिशील होकर ही उन्होंने सर्वज्ञता को प्राप्त किया है / शुद्ध चारित्र परिपालन करने के लिए परीषहों पर विजय पाना जरूरी है / जो साधक अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों में आकुल-व्याकुल नहीं होता, संयम मार्ग से विचलित नहीं होता, उसका चारित्र शुद्ध एवं निर्मल बना रहता है और उस विशुद्ध' भावना से ज्ञानावरणीय; दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घातिक कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है या यों कहना चाहिए कि अनन्त ज्ञान, दर्शन, आत्मसुख एवं वीर्य की ज्योति अनावृत्त हो जाती है / साधक की दृष्टि में पूर्णता आ जाती है, उससे दुनिया की कोई भी वस्तु प्रच्छन्न नहीं रहती / और यह पूर्ण दृष्टि, संयम मार्ग पर प्रगति करके ही प्राप्त की गई है और अभी भी की जा रही हैं तथा भविष्य में प्राप्त की जा सकेगी / इस अपेक्षा से यह कहा गया है किपूर्व सूत्र में कथित मार्ग सर्वज्ञ पुरूषों द्वारा अवलोकित एवं आचरित है / इसलिए साधक को निशंक भाव से उस पथ पर गतिशील होना चाहिए / संयत, सदायत और अप्रमत्त ये तीनों 'वीर' शब्द के विशेषण है / संयत का अर्थ हैविषय-विकार एवं सावध कार्यों में प्रवृत्तमान योगों का सम्यक् प्रकार से निरोध करने वाला, और सदा विवेक के साथ प्रवृत्ति करने वाले को सदायत कहते हैं / तथा अप्रमत्त का अर्थ है- मद्य, विषय, कषाय, विकथा और निद्रा आदि प्रमाद का परित्याग करने वाला / उक्त गुणों से युक्त पुरुष वीर कहलाता है और ऐसे वीर पुरुष ने इस संयम मार्ग को देखा एवं बताया है / योगानुसारी प्रस्तुत सूत्र का अर्थ है- अग्निकाय के आरम्भ-समारम्भ से मन, वचन

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