Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका ॐ१ - 1 -4 - 2 (33) 209 में अप्कायिक जीव तथा उसके पत्तों को कंपित करते हुए वायुकायिक जीव भी वहां पाए जाते हैं / इस तरह एक वृक्ष को विध्वंस करने के साथ 6 काय के जीवों का नाश हो जाता है / इसी बात को बताने के लिए सुत्रकार ने 'अग्नि' शब्द का प्रयोग न कर के 'दीर्घलोक' शस्त्र शब्द का प्रयोग किया है / वनस्पति को दीर्घलोक कहने का तात्पर्य यह है कि- स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों में वनस्पतिकायिक जीवों की अवगाहना ही सब से बड़ी है / पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय के शरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है, परन्तु वनस्पतिकायिक जीवों की अवगाहना विभिन्न प्रकार की है / कुछ वनस्पतिकायिक जीवों की अवगाहना एक हज़ार योजन से भी कुछ अधिक है ! आगम में वनस्पतिकाय के संबन्ध में विस्तृत विवेचन मिलता है, कई जगह उसे दीर्घलोक भी कहा है / एक बार गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा कि- हे भगवन् ! वनस्पतिकाय में गया हुआ जीव, यदि वनस्पतिकाय में ही रहे, तो कितने काल तक रहता है ? हे गौतम ! यदि वनस्पति में गया हुआ जीव वनस्पतिकाय में ही जन्ममरण करता रहे तो उत्कृष्ट अनन्त जन्म-मरण करता है और काल की अपेक्षा से अनन्त काल तक उसी में परिभ्रमण करता रहता है / इतना ही नहीं; असंख्यात पद्गल-परावर्तन उसी काय में पूरे कर देता है / अवगाहना के संबंध में पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा-हे गौतम ! वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना एक हज़ार योजना से भी कुछ अधिक है, इस लिए वनस्पतिकाय को आगम में दीर्घलोक कहा है / . इस दीर्घलोक-वनस्पतिकाय का विनाशक शस्त्र अग्नि है / इस लिए जो व्यक्ति अग्नि का आरम्भ-समारम्भ करता है, वह 6 काय का विनाश करता है और जो इसके आरम्भ से निवृत्त है वह 17 प्रकार के संयम का आराधक है / इसी बात को प्रस्तुत सूत्र में इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है कि- जो व्यक्ति अग्निकाय के ज्ञाता है अर्थात् उस से होने वाले आरम्भ एवं विनाश तथा उससे बन्धने वाले कर्म के स्वरूप को भली-भांति जानता है, वह संयम का भी परिज्ञाता है और जो संयम का परिज्ञान रखता है. वह अग्निकाय के आरम्भ से भी निवत्त होता है / प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'खेयण्णे' शब्द के संस्कृत में दो रूप बनते हैं-१-क्षेत्रज्ञ: और २-खेदज्ञः इन उभय शब्दों का अर्थ करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है "क्षेत्रज्ञो निपुण: अग्निकार्य वर्णादितो जानातीत्यर्थः / खेदज्ञो वा खेदः तद् व्यापार: सर्वसत्त्वानां दहनात्मकः पाकाद्यनेक शक्तिकलापोपचितः प्रवरमणिरिव जाज्वल्यमानो लब्धाग्निव्यपदेशो यतीनामनारम्भणीय: तमेवंविधं खेदं अग्निव्यापार जानातीति खेदज्ञः" अर्थात-अग्नि को वर्णादि रूप से जानने वाले को क्षेत्रज्ञः कहते हैं और अग्नि के