Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 188 // 1-1 - 3 - 9 (27) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हल, खड्ग (तलवार) आदि की तरह... इनसे भिन्न जहां दाताको और लेनेवालेको (ग्रहण करनेवालेको) एकांतसे हि देय वस्तु उपकारक ऐसा ही दान जिन-मत (आगम) में मान्य है.. अन्यत्र भी कहा है कि- जहां स्वयं दुःखी न हो, और अन्यके दुःखमें भी निमित्त न बने... किंतु केवल (मात्र) उपकार करनेवाला हो वह हि धर्मके लिये दान कहा गया है... इतनी बातसे यह निश्चित हुआ कि- शाक्य आदि मतवाले साधुओंको सचित्त अप्कायके उपभोगमें हिंसा तथा अदत्तादान का दोष लगता हि है... अब इन दो दोषोंको आगम सूत्रके माध्यमसे अन्य मतका परिहार करते हुए, सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... . VI सूत्रसार : जैनागमों में साधु के लिए हिंसा एवं आरंभ-समारंभ का सर्वथा त्याग करने की बात कही है और हिंसा की तरह झूठ, चोरी आदि दोषों से भी सर्वथा दूर रहने का आदेश दिया है / साधु सचित्त या अचित्त, छोटी या बड़ी कोई भी चीज़ बिना आज्ञा स्वीकार नहीं करता। वह चौर्य कर्म का सर्वथा त्यागी है / सचित्त जल को ग्रहण करने में जीवों की हिंसा भी होती है और चोरी भी लगती है। क्योंकि- अप्काय के शरीर पर उन अप्काय जीवों का हि अधिकार है / क्योंकि- प्रत्येक प्राणी को अपना शरीर अपना जीवन प्रिय होता है, वह उसे अपनी इच्छा से छोडना नहीं चाहता / जैसे हमें अपना शरीर प्रिय है, हम उस में ज़रा सा अंग भी किसी को काट कर नहीं देना चाहते / वैसे ही अप्कायिक जीव भी स्वेच्छा से अपना शरीर किसी को भी उपयोग के लिए नहीं देते / अतः उनकी विना आज्ञा से सचित्त जल का उपयोग करना चोरी भी है / तर्क दिया जा सकता है कि जल आदि की उत्पत्ति हमारे उपयोग के लिए हुई है / अतः उसका उपयोग करने में चोरी एवं दोष जैसी क्या बात है ? यह केवल तर्क मात्र है। क्योंकि संसार में विष, आदि अन्य पदार्थ भी उत्पन्न हुए हैं / फिर उनका भी उपयोग करना चाहिए क्योंकि सभी पदार्थ उपयोग के लिए उत्पन्न हुए हैं / परन्तु विष का उपयोग कोई भी समझदार व्यक्ति नहीं करता / दूसरी बात यह है कि जैसे मनुष्य यह तर्क देता है, उसी तरह हिंसक जन्तु भी तर्क देने लगे कि मनुष्य के शरीर का निर्माण हमारे खाने के लिए हुआ है, तो मनुष्य को कोई आपत्ति तो नहीं होगी ? परन्तु मनुष्य अपने लिए यह नहीं चाहता / फिर अप्काय के लिए यह तर्क देना, केवल मोहांधता ही है /