Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 187 श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1 - 3 - 9 (27) III शब्दार्थ : अदुवा-अथवा / अदिन्नादाणं-अदत्तादान-चोरी का भी दोष लगता है / IV सूत्रार्थ : हिंसा के साथ साथ अदत्तादान (चोरी) का पाप भी लगता है... // 27 // V टीका-अनुवाद : शस्त्रसे उपहत नहिं हुए अपकायके उपभोगसे केवल हिंसा हि होती है, ऐसा नहिं है, किंतु अदत्तादान याने चोरीका भी दोष लगता है... क्योंकि- जिन अप्काय-जीवोंने जो जल स्वरूप शरीर बनाया है, उन अपकाय जीवोंकी अनुमतिके बिना हि वे शाक्यादि साधु उनका उपभोग करतें हैं, अतः उन्हे हिंसा के साथ साथ चोरीका भी दोष लगता है... जैसे कि- कोइक मनुष्य जीवंत ऐसे शाक्य मतवाले साधुके शरीरमें से एक अंगको छेदकर ले लेता है, तब वह उन्हें अदत्त हि है, क्योंकि- उस शाक्य भिक्षुकने उन्हे अंग छेदनेकी अनुमति नहिं दी है... और वह अंग उन शाक्य भिक्षकोंने ग्रहण कर रखे है... अतः दूसरोंकी गाय-बैल आदिको ग्रहण करनेकी तरह यहां भी चोरी (अदत्तादान) का दोष लगता है... इसी प्रकार उन अपकाय जीवोंने जो जल स्वरूप शरीर ग्रहण कीया है, अतः उनकी अनमति के बिना अप्कायका उपभोग करनेवालोंको भी चोरी = अदत्तादान का दोष लगता है, क्योंकिअप्काय जीवोंने अपने शरीरके उपभोगकी अनुमति नहिं दी है... प्रश्न- किंतु यह कूआ तालाब आदि जिस मनुष्यका है, उसने तो एकबार अनुमति दी है, अतः अदत्तादान (चोरी) का दोष नहिं लगेगा... क्योंकि- पशुके मालिक (स्वामी) की अनुज्ञासे पशुके घातके समान, उन कूए आदिके स्वामीने अनुज्ञा दी है... उत्तर- ना, इस प्रकार दी हुई अनुज्ञा, अनुज्ञा नहि कही जाएगी, क्योंकि- पशु भी मरना नहिं चाहता है, तो भी चिल्लाते हुए उस पशुको वह अनार्य मनुष्य मारता है... इसलिये यहां भी पशु अपना शरीर देना नहिं चाहते हुए भी उसे मार कर शरीरका उपभोग करना यह स्पष्ट हि अदत्तादान हि है... और हकीकतमें अन्यकी वस्तुका, अन्य स्वामी नहिं हो शकता... प्रश्न यदि ऐसा हो तब तो संपूर्ण लोकमें प्रसिद्ध ऐसा गोदान (गायका दान) इत्यादि व्यवहार नष्ट हो जायेगा... उत्तर- नष्ट होने दो, ऐसे पाप के संबंधको... क्योंकि- दान वह हि कहा जाता है कि- जहां स्वयं दुःखी न हो, दासी, बैल आदिकी तरह... और जहां अन्यको भी दुःख न हो...