Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 卐१-१-3-११ (२९)卐 में कोई दोष नहीं है और न उसका निषेध ही किया है, परन्तु शारीरिक विभूषा के लिए उसका उपयोग करना अकल्पनीय है / किन्तु शाक्य और परिव्राजक संन्यासी स्नान एवं जलपान इन दोनों कार्यों के लिए सचित्त जल को कल्पनीय मानते हैं / यह ठीक है कि- जैनेतर परम्परा के विचारकों में पानी का उपयोग करने में एकरूपता नहीं है / कुछ सचित्त जल का केवल पीने के लिए उपयोग करते हैं, तो कुछ पीने एवं स्नान करने के लिए / जो भी कुछ हो, इतना अवश्य है कि उन्हें उनकी सजीवता का बोध नहीं है और न उन जीवों के प्रति उनके मन में रक्षा की भावना ही है / अतः उनका कथन युक्ति संगत नहीं है / और जिस आगम के आधार से वे सचित्त जल का उपभोग करते हैं, वह आगम भी आप्तसर्वज्ञ प्रणीत न होने से प्रमाणिक नहीं माना जा सकता / और अनुमानादि प्रमाणों से हम इस बात को स्पष्ट देख चुके हैं कि- जल में सजीवता है / इस लिए सचित्त जल के आसेवन को निर्दोष नहीं कहा जा सकता / अतः सूत्रकार महर्षि इस विषय में आगे का सूत्र कहेंगे.... I सूत्र // 11 // // 29 // पुढो सत्थेहिं विउटुंति // 29 // II संस्कृत-छाया : पृथक् शस्त्रैः व्यावर्तयन्ति (विविधं कुदृन्ति) // 29 // III शब्दार्थ : . . ' पुढो-पृथक् / सत्थेहि-शस्त्रों से / विउहित-अप्काय के जीवों का नाश करते हैं / IV सूत्रार्थ : विविध प्रकारके शस्त्रोंके द्वारा अपकाय जीवोंकी हिंसा करतें हैं // 29 // v टीका-अनुवाद : साधुके आभासको धारण करते हुए वे शाक्य आदि मतवाले उत्सेचन आदि प्रकारके विविध शस्त्रोंके द्वारा अप्काय जीवोंकी हिंसा करतें हैं... अथवा तो विविध प्रकारके (परकाय) शस्त्रोंसे अपकाय जीवोंका छेदन-भेदन करते हैं.... अब शाक्य आदि मतवालोंके शास्त्रोंकी असारता बतलाने के लिए सत्रकार महर्षि आगे के सूत्र कहेंगे...