Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका म 1 - 1 -3 - 5 (23) 177 करने का अर्थ है, अपने अस्तित्व का अपलाप करना और अपने अस्तित्व का अपलाप या * निषेध करने का तात्पर्य है कि अप्कायिक जीवों की सत्ता का निषेध करना / इस तरह सत्रकार ने सभी आत्माओं का, स्वरूप की अपेक्षा से आत्मैक्य सिद्ध करके इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि- किसी एक आत्मा के अस्तित्व को मानने से इन्कार करने का अर्थ है, समस्त जीवों के आत्मा के अस्तित्व का निषेध करना, और यह आगम, तर्क एवं अनुभव से विपरीत है / इस लिए मुमुक्षु को अप्कायिक जीवों का एवं अपनी आत्मा का अपलाप नहीं करना चाहिए। 'अभ्याख्यान' शब्द का अर्थ है-असदभियोग अर्थात् झूठा आरोप लगाना जैसे-जो व्यक्ति चोर नहीं है, उसे चोर कहना, और जो चोर है, उसे अचोर कहना या साहूकार बताना यह अभ्याख्यानं है / इसी तरह अप्कायिक जीवों में चेतनता होते हुए भी उन्हें निश्चेतन या निर्जीव कहना, यह उनकी सजीवता पर मिथ्या आरोपण है, इस लिए इसे अभ्याख्यान कहा गया है / . यह सत्य है कि- अप्काय में चेतना का अल्प विकास है / परन्तु इससे हम उसकी सत्ता का निषेध नहीं कर सकते / क्योंकि- उसकी चेतना अनुभव सिद्ध है / यद्यपि जल, जीवन के लिए उपयोगी है. और घी-तेल की तरह द्रवित है, तो भी इतने मात्र कारण से हम उसे निर्जीव नहीं कह सकते / क्योंकि- सभी उपयोगी एवं तरल पदार्थ निर्जीव नहीं होते / जैसे घोड़ा, गाय-भेंस आदि पशु उपयोगी होने पर भी सजीव हैं और हस्तिनी के गर्भ में उत्पन्न होने वाला जीव तथा सभी पक्षियों के अंडे रूप में जन्म लेने वाला प्राणी कई दिनों तक तरल रहता है / फिर भी उसे सजीव मानते हैं / यदि उनकी तरल अवस्था में सजीवता नहीं मानोंगे, तो उससे प्रगट होनेवाले, अंगोपांग युक्त हाथी एवं पक्षियों में सजीवता प्रतीत नहीं होगी / इस लिए हस्तिनी के गर्भ में एवं अंडे में रही हुइ तरल अवस्था में भी अव्यक्त चेतना स्वीकार की गई है / इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि- पानी में चेतना का अस्तित्व है / द्रवित होने मात्र से उसे निर्जीव कहना सर्वथा अनुचित है / इस तरह प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट बताया गया है कि जैसे अपनी आत्मा के अस्तित्व को इन्कार करना, अपलाप कहा जाता है, उसी तरह अनुभव सिद्ध अप्काय की सजीवता का निषेध करना भी अभ्याख्यान या अपलाप कहलाता हैं / जो अप्काय के अस्तित्व का अपलाप करते हैं, वे उसके आरम्भ-समारम्भ से नहीं बच सकते और उसके आरम्भ-समारम्भ से निवृत्त न होने के कारण, वे अज्ञानी लोग फिर संसार में परिभ्रमण करते हैं, और जो साधु लोग उसकी सजीवता को जानते हैं, वे उसका अपलाप नहीं करते, और उसके आरम्भ-समारम्भ का त्याग करके संसार सागर से पार हो जाते है / इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार