Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 118 卐१-१-१-१२॥ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन लम्बे समय तक जीवित रखने के लिए वह जीव, उचित एवं अनुचित कार्य का तथा पाप-पुण्य का थोडा भी ध्यान नहीं रखता / इस तरह जीवन को स्थायी बनाए रखने की झूठी लालसा या मृगतृष्णा के पीछे वह अनेक पाप कार्यो में प्रवृत्त होता है / और इसका मुख्य कारण हैनश्वर जीवन के प्रति प्राणी की मोह जन्य आसक्ति, ममता एवं मूर्छा / . इससे स्पष्ट हो जाता है कि- प्राणी अपनी कामनाओं या अभिलाषाओं के वशीभूत होकर पाप कार्यों में प्रवृत्त होता है / जब उसे क्रिया के हेय एवं उपादेयता के स्वरूप का सम्यक्तया बोध हो जाता है, तब वह परिज्ञा याने विवेक युक्त होकर साधना में प्रवृत्त होता है, इस प्रकार वह मनुष्य (साधु), संसार में अनन्त काल तक परिभमण कराने वाले पाप कर्मों से सहज ही बच जाता है / क्योंकि- जब तक क्रिया में विवेक जागृत नहीं होता तब तक पाप कर्म का बन्ध होता है / विवेक जागृत होने के बाद साधक द्वारा की जाने वाली क्रिया से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता / और जब साधक ज्ञान के द्वारा क्रिया के वास्तविक स्वरूप को समझकर त्यागपथ पर गतिशील होता है, फिर शनैः-शनैः क्रियाओं का परित्याग करता हुआ, एक दिन संसार के कारणभूत क्रिया मात्र से मुक्त हो जाता है / साधना की चरम सीमा को लांघकर साध्य को सिद्ध कर लेता है / इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए साधक के लिए यह आवश्यक है कि- वह पहले क्रिया संबन्धी उचित जानकारी प्राप्त करे और फिर उनमें विवेक पूर्वक गति करे / इससे साधक संसार सागर को पार करके एक दिन कर्म बन्धन की कारणभूत क्रियाओं से भली प्रकार छुटकारा पा लेगा / इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार महर्षि क्रियाओं की इयत्ता-परिमितता का स्वरूप आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 12 // एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति // 12 // II संस्कृत-छाया : एतावन्तः सर्वे लोके कर्म-समारम्भाः परिज्ञातव्या भवन्ति // 12 // III शब्दार्थ : लोगंसि-लोक में / एयावंती-इतने ही / सव्वावंती-सर्व / कम्मसमारम्भा-कर्म समारम्भ-क्रिया विशेष / परिजाणियव्वा-परिज्ञातव्य-जानने योग्य / भवंति-होते हैं। IV सूत्रार्थ : लोकमें यह सभी कर्मसमारंभ जानने योग्य होते हैं // 12 //