Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दो - टीका 1-1-2-1(14) 127 नि. 80 जिस प्रकार वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, वलय आदिमें विभिन्नता दिखाई देती है वैसे हि पृथ्वीकायमें भी विविधता होती है... वृक्ष गुच्छ - गुल्म आम वगैरह वेंगण, सल्लकी, कपास आदिनवमालिका कोरंटक आदिपुन्नाग अशोकलता वगैरहअपुषी, वालुंको, कोशातकी आदिकेतकी कदली (केले) आदि लता वल्ली वलय - और भी वनस्पतिके भेदके दृष्टांत से पृथ्वीकायके भेद बतातें हैं... नि. 81 जिस प्रकार वनस्पतिकायमें औषधि-तृण, सेवाल, पनक (लीलफुल-निगोद) कंद, मूल, आदि भेद होते हैं वैसे 'हि पृथ्वीकायमें भी विविध भेद-प्रभेद होते हैं... औषधि... शालि (चावल) गेहूं वगैरह तृण सेवाल पनक - - - दर्भ (घास) आदि पानीमें उपर जो तैरती है वह... लकडी आदिमें उत्पन्न होनेवाले निगोद स्वरूप जो पांचो वर्णमें दिखाई देते हैं... सूरणकंद आदि मूले, गाजर, वगैरहउशीर, आदि कंद मूल - - ये सभी सूक्ष्म होनेके कारणसे एक दो दिखाइ नहि देतें किंतु जो दिखाई देते हैं वे कितने होते हैं यह बात अब कहते हैं... नि. 82 एक-दो-तीन यावत् संख्यात जीव जहां एकसाथ होते हैं वे दीखाइ नहिं देते... किंतु जहां पृथ्वीकायके असंख्य जीव इकठे होते हैं वे हि चर्मचक्षुवाले प्राणीको देखे जा शकते हैं... अब यहां प्रश्न होता हैं कि- यह पृथ्वीकाय जीव है ऐसा कैसे जान सकेंगे ? उत्तरमें कहते हैं कि- पवीकाय जीवोंने जीस शरीरमें निवास कीया है, उन शरीरोंको देखने से हि जीवोंको