Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 卐१ -1 - 2 - 4 (१७)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन v टीका-अनुवाद : पृथ्वीकायका आरंभ-समारंभ स्वरूप वध करनेवाले करानेवाले एवं अनुमोदन करनेवाले उस अज्ञानी जीवको भविष्यत्कालमें अहित होता है यावत् अबोधि याने जिन-शासनकी प्राप्ति दुर्लभ होती है... क्योंकि- पृथ्वीकाय आदि जीवोंकी पीडामें प्रवृत्ति करनेवाले जीवोंको भविष्यत्कालमें थोडा भी हित दायक शुभ योग प्राप्त नहिं होता है... यह सूत्रका सार है... जो साधु परमात्मासे या उनके साधुओंसे पाप स्वरूप पृथ्वीकायके आरंभ-समारंभ को जानकर ऐसा समझता है कि- “यह पृथ्वीकाय सचेतन-सजीव है, अतः उनका वध अहित कारक है" ऐसा अच्छी तरहसे जानता हुआ वह साधु ग्रहण करने योग्य सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रको अच्छी तरहसे स्वीकार करके विचरतें है... साक्षात् परमात्माके मुखसे या तो उनके साधुओंसे सुनकर यह तत्त्व जानते हैं किपृथ्वीकाय-जीवोंका वध निश्चित हि कारणमें कार्यका उपचार करने स्वरूप आठ प्रकारके कर्मबन्ध स्वरूप गांठ है... इसी हि प्रकार यह पृथ्वीकायका वध मोहका कारण होने से मोह हि है याने आठ प्रकारके कर्ममें से अट्ठाइस (28) भेदवाला दर्शनमोहनीय एवं चारित्र-मोहनीय कर्म है... इसी हि प्रकार यह पृथ्वीकाय का समारंभ मरणका कारण है अतः आयुष्यकर्मक क्षय स्वरूप मार है... इसी हि प्रकार यह पृथ्वीकायका वध सीमंतक आदि नरक भूमिमें उत्पन्न होनेका कारण है अतः नरक हि है... यह पृथ्वीकायका वध नरकका कारण है, ऐसा कहनेसे असाता-वेदनीय कर्मका निर्देश कीया है... प्रश्न- एक जीवका वध करनेमें आठ कर्मोका बंध कैसे हो शकता है ? उत्तर- मारनेवाले जीवका ज्ञान अवरुद्ध (विनष्ट) होनेके कारणसे वह हिंसक प्राणी, ज्ञानावरणीय कर्मका बंध करता है.. यावत् अंतराय कर्म याने आठों कर्मोका बंध करता है... इसके अलावा और भी वे जिनमत के साधु यह भी जानते हैं... कि- आहार, आभूषण आदि उपकरणके लिये तथा वंदन, सन्मान एवं पूजनके लिये और दुःखोंके विनाशके लिये आरंभमें आसक्त तथा मोहसे मूर्छित ऐसे यह संसारी जीव (मनुष्य) अज्ञानतासे नरक एवं तिर्यंच गतिके दुरंत दुःख देनेवाले पृथ्वीकायका आरंभ-समारंभ स्वरूप वध करतें हैं... वे शाक्य आदि साधु-लोग इस प्रकार... विविध प्रकारके शस्त्रोंसे पृथ्वीकायकी हिंसा करतें हैं... अपने मनवचन-कायासे अथवा हल, कुद्दाली आदि पृथ्वीकाय स्वरूप स्वकाय शस्त्रसे पृथ्वीकाय का वध करनेवाले प्राणी (मनुष्य) अन्य भी अनेक प्रकारके बेइंद्रियादि जीवोंका भी भिन्न भिन्न-प्रकारसे वध करते हैं...