Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ 168 // 1-1-3-2 (20); श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन % 3D II संस्कृत-छाया : यया श्रद्धया निष्क्रान्तः, तामेव अनुपालयेत् विहाय विस्रोतसिकाम् / III शब्दार्थ : जाए-जिस / सद्धाए-श्रद्धा से / निक्खंतो-घर से निकला है-दीक्षित हुआ है / विसोतियं-शंका को / वियहित्ता-छोड़ कर / तमेव-उसी श्रद्धा का जीवन पर्यन्त / अणुपालिज्जा-परिपालन करे / IV सूत्रार्थ : जीस श्रद्धासे निकले हैं, शंका-कुशंकाको छोडकर उसी श्रद्धाको सुरक्षित रखें, V टीका-अनुवाद : जीस प्रवर्धमान संयमस्थानकके कंडक स्वरूप श्रद्धासे प्रव्रज्याको स्वीकार कीया है, उसी श्रद्धाको जीवन पर्यंत सुरक्षित रखें... क्योंकि- दीक्षाके समय जीवको अच्छे वर्धमान परिणाम होते हैं, उसके बाद संयमकी गुणश्रेणीको प्राप्त करनेके बाद वर्धमान परिणामवाला होता है, या हीयमान (क्षीण) परिणामवाला होता है... या तो अवस्थित (स्थिर) परिणामवाला होता है... उनमें वृद्धिका काल या हानिका काल कमसे कम अक समय और अधिकसे अधिक अंतमुहूर्त होता है... इससे अधिक समय संक्लेश या विशुद्धि नहिं होती है... कहा भी है किइस जगतमें जीवोंका संक्लेश काल अंतमुहूर्त से अधिक नहिं होता, और विशुद्धि काल भी अंतर्मुहूर्तसे अधिक नहिं होती... यह आत्माका प्रत्यक्ष = अनुभव सिद्ध अर्थ याने स्वरूप है... यह संक्लेश और विशुद्धि स्वरूप उपयोगका परिवर्तन (फेर-फार) हेतु बिना हि स्वभावसे हि होता है, यह स्वभाव आत्माको प्रत्यक्ष हि है, इनमें हेतुओंका कथन करना व्यर्थ हि है... वृद्धि और हानि स्वरूप संक्लेश एवं विशुद्धिके यव-मध्य या वज्रमध्यके बिच अवस्थित (स्थिरता का) काल आठ समयका होता है... उसके बाद अवश्यमेव पतन (फेर-फार) होता है... यह वृद्धि-हानि और अवस्थित संयमश्रेणीका परिणाम, निश्चित रूपसे केवलज्ञानी हि जानतें हैं, छद्मस्थ मुनी नहिं जानतें... यद्यपि- प्रव्रज्या (दीक्षा) स्वीकारने के बादमें श्रुत-समुद्रको अवगाहन = परिशीलन करनेवाले उस (कोइक) मुनीको संवेग एवं वैराग्य भावनासे वर्धमान परिणाम होता ही है, कहा भी है कि- जैसे जैसे अपूर्व एवं अतिशय शांतरसवाले श्रुतज्ञानका अभ्यास होता रहता है वैसे वैसे मुनी नये नये संवेग रस एवं श्रद्धासे प्रसन्न होता है...