Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-2 - 4 (17) 153 यहां प्रश्न यह होगा कि- पृथ्वीकाय जीवोंको आंखें न होनेके कारणसे देखतें नहिं हैं... * कान न होने के कारणसे सुनते नहिं है... नासिका (नाक) न होनेके कारणसे सुंघते नहिं है... पाउं (पग) न होनेके कारणसे चलते नहिं है... तो फिर उनको वेदना-पीडा होती है, ऐसा कैसे जान शकतें ? इस प्रश्नके उत्तरमें अच्छी तरहसे समझाते हुए दृष्टांत कहते हैं कि- हे शिष्य ! तुमने जो पुच्छा कि- पृथ्वीकायको वेदना-पीडा किस प्रकारसे होती है ? तो सुना ! जैसे कि- कोई जन्मसे हि अंधा, बहेरा, मुंगा, कोढिया, पांगडा (लंगडा) अर्थात् जिसके हाथ-पाउं आदि अंगोपांग स्पष्ट नहिं बने ऐसे मृगापुत्र की तरह पूर्व जन्ममें कीये हुए अशुभकर्मोके उदयसे हितकी प्राप्ति एवं अहितका परिहार (त्याग) के विषयमें शून्य मनवाला तथा अतिशय करुण दशाको पाये हुओ उस अज्ञानी मूढ एवं अंध आदि स्वरूपवाले जीवको कोइक मनुष्य (जीव) तीक्ष्ण भाले (शस्त्र) से भेदे (मारे) और अन्य कोइक मनुष्य उसे छेदे (दो टुकडा करे) तब वह छेदन-भेदनकी अवस्थामें, न तो देखता है, न तो सुनता है, और मुंगा होनेसे न तो चिल्लाता (रोता) है, तो क्या ऐसी अवस्थामें उसको वेदना-पीडाका अभाव हो शकता है ? अथवा तो क्या उसमें जीवत्वका अभाव मान शकते हैं ? कभी नहिं... इसी प्रकार पृथ्वीकाय जीव भी अव्यक्त चेतनावाले जन्मसे हि अंधे बहेरे मुंगे पांगले आदि स्वरूपवाले पुरुषकी तरह समझीएगा... अथवा तो स्पष्ट (व्यक्त) चेतनावाले पंचेंद्रिय जीवका कोइक मनुष्य पाउंको भेदे या छेदे, इसी हि प्रकारे शरीरके अंगोपांग जैसे कि- गल्फ. जंघा, जान (ढींचण) उरु (साथळ) कटी (केड) नाभि, उदर (पेट) पडखे (पाच) पीठ, छाती, हृदय, स्तन, खभा, बाहु (भूजा) हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा (गरदन) दाढी, ओष्ठ (होठ) दांत, जिह्वा (जीभ) तालु, गला, गाल, कान, नाक, आंख, भूकुटी. ललाट (कपाल) मस्तक इत्यादि अंगोपांग-अवयवोंको कोइक मनुष्य भेदे या छेदे तब उस जीवोको वेदना-पीडा देखी जा शकती है, इसी हि प्रकार अति उत्कट (उव्य) मोह एवं अज्ञानवाले तथा थीणद्धी निद्रा के कारणसे अव्यक्त चेतनावाले उस पृथ्वीकायके जीवको भी वेदना-पीडा होती है... यहां पर और भी एक दृष्टांत कहते हैं कि- जैसे कि- कोड़क मनुष्य किसी अन्य मनुष्यको मूर्छित करके उसे मार डाले, इस स्थितिमें उस मनुष्यको वेदना-पीडा हुइ ऐसा स्पष्ट तो दिखता हि नहिं है किंतु उसे अव्यक्त वेदना तो होती हि है... इसी प्रकार पृथ्वीकाय जीवोंको भी वेदना-पीडा होती हि है ऐसा समझना चाहिये... पृथ्वीकायमें जीवकी सिद्धि करके और विविध शस्त्रसे उन्हे वेदना-पीडा होती है ऐसा .' कहकर अब उन पृथ्वीकायके वधसे कर्मबंध होता है यह बात अब आगे के सूत्रसे कहेंगे...