Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी- हिन्दी-टीका 卐१ - 1 - 2 - 5 (18) 157 सूत्रमें विरति का अधिकार है ऐसा स्पष्ट हुआ... पृथ्वीकायके वधमें कर्मबंध होता है ऐसा जाननेवाला बुद्धिशाली कुशल साधु स्वयं हि द्रव्य एवं भाव भेदवाले पृथ्वीकायके शस्त्रका आरंभ नहिं करता है, और अन्यके द्वारा भी पृथ्वीकायका वध नहिं करवाता है, तथा जो लोग पृथ्वीकायका वध करतें हैं उनकी अनुमोदना भी नहिं करतें... इस प्रकार मनसे, वचनसे एवं कायासे तथा भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यत्कालके विषयमें गिनती करने से 3 x 3 = 9 x 3 = 27 प्रकारसे जो पृथ्वीकायका वध नहिं करते वे हि सच्चे साधु हैं. किंतु जो लोग पृथ्वीकाय का वध करते हैं वे साधु नहिं हैं... अब इस सूत्रका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- जो मुनिराज पृथ्वीकाय जीवोंको और उनकी वेदनाको जानते हैं वे हि पृथ्वीकायको खोदना, कृषि याने खेतवाडीका कर्म फर्मबंधके कारण है ऐसा जानते हैं, अतः ऐसे हि साधु ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यान परिज्ञासे पृथ्वीकायका वध नहिं करतें... इस प्रकार जो मुनि दो प्रकारकी परिज्ञासे सावध अनुष्ठानको जानते हैं अथवा तो आठ प्रकारके कर्मबंधको जानता है वह हि मुनि परिज्ञातकर्मा है, अन्य शाक्य आदि मतवाले लोग परिज्ञातकर्मा नहिं है... ऐसा हे जंबू ! मैं तुम्हे कहता हुं... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में द्रव्य और भाव दोनों तरह के शस्त्रों को लिया गया है / स्वकाय-अपना शरीर, परकाय-दूसरे का शरीर और उभयरूप-स्वपर काय, इन तीनों को द्रव्य शस्त्र में लिया गया है / और असंयम एवं मन, वचन और शरीर के योगों की दुष्परिणति को भाव शस्त्र माना गया है। सूत्रकार ने इस सूत्र में इस बात को अभिव्यक्त किया है कि मुमुक्षु पृथ्वीकायिक जीवों पर किए जाने वाले शस्त्र प्रयोग से जो उन्हें वेदना होती है तथा उससे आरंभ-समारंभ करने वाले व्यक्ति को जो कर्मबन्ध होता है, उसे समझे और उस सावध क्रिया का परित्याग करे। प्रस्तुत सूत्र पूरे उद्देशक का सार रूप है / क्योंकि- जब तक साधक को पृथ्वीकाय की सजीवता एवं पृथ्वीकायिक जीवों का आरंभ-समारंभ करने से होने वाले कर्म का परिज्ञान नहीं हो जाता, तब तक वह उसका परित्याग नहीं कर सकता / इसलिए हिंसा से विरत होने का उपदेश देने से पहले विस्तार से पृथ्वीकाय की चेतनता एवं आरंभ-समारंभ से उसे होने वाली वेदना का स्वरूप बताया गया और फिर यह बताया गया कि जो प्रबुद्ध पुरुष उसकी हिंसा का, आरंभ-समारंभ का त्याग करता है, वही मुनि परिज्ञात कर्मा है / इस बात