Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 128 ॐ१-१-२ -1 (14) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन देखे जा सकते है... जैसे कि- गाय, घोडा, हाथी आदिमें जीवोंको देख शकतें है... नि. 83 उनके शरीरसे हि वे बादर जीव प्रत्यक्ष होते हैं ऐसा सूत्रमें कहा है, और जो सूक्ष्म जीव हैं वे तो आंखोसे देखे भी नहिं जा शकतें, किंतु केवल आज्ञासे हि जाना जाता है... असंख्य पृथ्वी कंकर आदि बादर शरीरवाले पृथ्वीकाय जीव शरीरके द्वारा हि प्रत्यक्ष होते है... शेष सूक्ष्म शरीरवाले पृथ्वीकाय जीव जगतमें तो है किंतु वे मात्र जिनवचनसे हि याह्य होते हैं... क्योंकि वे चक्षुके विषयमें कभी नहिं आ शकतें... प्ररूपणा द्वारके बाद अब लक्षण द्वार कहते हैं... नि. 84 उपयोग, योग, अध्यवसाय, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अचक्षुदर्शन, आठ कर्मोके उदय, लेश्या, संज्ञा, उच्छ्वास और कषाय पृथ्वीकायमें होते हैं... 1. उपयोग पृथ्वीकाय आदि जीवोंमें थिणद्धी निद्राके कारणसे ज्ञान दर्शन स्वरूप अव्यक्त उपयोग शक्ति होती है... 2. योग औदारिक, औदारिक मिश्र तथा कार्मण काययोग पृथ्वीकायमें होता है कि जो कर्मवाले जीवको वृद्ध-दंडके समान आलंबन रूप बनता अध्यवसाय- जीवके परिणाम स्वरूप अध्यवसाय है, कि- जो मूर्च्छित मनुष्यके मनमें होनेवाले चिंतन-विचार स्वरूप है किंतु उन्हें छद्मस्थ जीवों समझ नहि पातें... 4/5. मति-श्रुतज्ञान- पृथ्वीकाय जीवोंको साकारोपयोग स्वरूप मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होता है... अचक्षुदर्शन पथ्वीकाय जीवोंको स्पर्शद्रिय होती हैं, अतः उन्हे अचक्षदर्शन होता आठ कर्म पृथ्वीकाय जीवोंको आठों कर्मोका उदय होता है, और आठों कर्मोका बंध भी होता है... लेश्या पृथ्वीकाय जीवोंको अध्यवसाय स्वरूप कृष्ण नील कापोत और तेजोलेश्या होती है...