Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 136 卐१-१-२-१ (१४)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पहले अध्ययनका पहला उद्देशक कहनेके बाद अब दुसरा उद्देशक कहते हैं... अट्टे याने आत पदके नामादि चार निक्षेप होते हैं उनमें नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम है... अब ज्ञ शरीर - भव्य शरीर और तद्व्यतिरिक्त नो आगमसे द्रव्य आर्त - बैलगाडी आदिके चक्रोंके उद्धके मूलमें लोहेका पट्ट होता है वह द्रव्य आर्त अब भाव आर्त - वह दो प्रकार से 1. आगमसे... 2. नो आगमसे... 1. आगमसे भावआर्त- ज्ञाता और उपयुक्त- आर्त पदके अर्थको जाननेवाला और उपयोगी... 2. नो आगमसे भाव आर्त- औदयिक के इक्कीस (21) भाववाले, राग-द्वेषवाले, प्रिय वियोगादि आर्त ध्यानके दुःखवाले मनुष्य-जीव भावात कहलाता है... अथवा विष (जहर) जैसे शब्द आदि विषयोंमें आकांक्षा-इच्छा होनेसे हित एवं अहितके विचारसे शून्य मनवाला मनुष्यजीव भावात है... और वह आठों कर्मोका बंध करता है... आगम सूत्रमें कहा भी है कि- हे भगवन् ! श्रोत्रंद्रिय के अधीन (परवश) जीव क्या बांधता है ? हे गौतम / शिथिल बंधी हुइ आठों कर्मोकी प्रकृतिओंको दृढ बंधनवाली करता है, यावत् अनादि अनंत स्थितिवाले इस चार गतिवाले संसार-वनमें दीर्घ (लंबे) काल तक परिभ्रमण करता रहता है... इस प्रकार स्पर्शद्रिय आदिमें भी समझ लीजीयेगा... और इसी हि प्रकार क्रोध-मान-माया-लोभ तथा दर्शन मोहनीय, चारित्रमोहनीय आदिसे संसारी जीव भावात हि है... कहा भी है कि- राग-द्वेष और कषाय तथा पांच इंद्रियां एवं दो प्रकारके मोहनीय कर्मसे संसारी जीव आर्त (पीडित) हैं.... अथवा तो शुभ और अशुभ ऐसे ज्ञानावरणीयादि आठों प्रकारके कर्मोंसे संपूर्ण लोक याने एकेंद्रियादि सकल जीवराशि आर्त है-पीडित है... लोक पदके नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्रकाल-भव-भाव एवं पर्याय यह आठ निक्षेप कहकर अप्रशस्त भाव-उदयवाले लोक (जीवों) का यहां अधिकार है... जितने भी जीव पीडित हैं वे सभी क्षीण एवं तुच्छ-असार हैं क्योंकि- ये सभी जीव मोक्षके साधन स्वरूप रत्नमयीसे हीन है याने औपशमिक आदि शुभ भावसे हीन है... वह परिघुन-क्षीणता के दो प्रकार है... 1. द्रव्य परिघुन 2. भाव परिघून. उनमें भी द्रव्य परिधून के दो प्रकार है... 1. सचित्त द्रव्य परिधून 2. अचित्त द्रव्य परिघून... 1. सचित परिघून... जीर्ण शरीरवाला स्थविर = वृद्ध... अथवा जीर्ण वृक्ष... 2. अचित्त परिधून... जीर्ण वस्त्र... मकान इत्यादि...