Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 138 卐१-१-२ - 1 (१४)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन क्रिया एवं उससे प्राप्त होने वाले दुःखों का वर्णन करके सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जो साधक परिज्ञातकर्मा होता है अर्थात् ज्ञ परिज्ञा (ज्ञान) के द्वारा कर्म बन्ध एवं संसार परिभमण के कारण को जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा (आचरण) के द्वारा उनका परित्याग करता है, वही मुनि है / क्योंकि मुनि पद को वही पा सकता है, जो संसार परिभ्रमण एवं कर्म बन्ध की कारणभूत क्रियाओं से विरक्त हो जाता है और इस विरक्ति के लिए पहले ज्ञान का होना जरूरी है / अतः ज्ञान और आचार से युक्त साधक ही मुनि होता है / जो व्यक्ति क्रियाओं के स्वरूप का बोध भी नहीं करता है और न उन्हें त्यागने का प्रयत्न करता है वह मुनि नहीं बन सकता और न कर्म बन्ध से मुक्त ही हो सकता है / निया में आसक्त व्यक्ति ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बन्ध करता रहता है और परिणाम स्वरूप पृथ्व्यादि छः काय रूप योनियों में परिभमण करता फिरता है / इस लिए यह आवश्यक हैं कि पृथ्व्यादि योनियों के स्वरूप को भी समझ लिया जाए, जिससे साधक उनकी हिंसा एवं पाप कर्म के बन्ध से / सहज ही बच सके... इत्यादि / अब इस उद्देशक का पिछले उद्देशक के साथ परंपरागत संबन्ध भी है। वह इस प्रकार है- आचारांग सूत्र के आरंभ में कहा गया है कि इस संसार में किन्ही जीवों को संज्ञा-ज्ञान या सम्यग बोध नहीं होता / क्यों नहीं होता ? इसका समाधान प्रस्तत सत्र में दिया गया है। "अट्टे लोए...." इत्यादि पदों का तात्पर्य यह है कि- आर्त याने आर्त शब्द का सामान्य अर्थ पीड़ित होता है या बाह्य दुःखों एवं आपत्तियों से आवेष्टित व्यक्ति को भी आर्त कहते हैं / परन्तु यहां राग-द्वेष एवं कषायों से आवृत, विषय-वासना के दलदल में फंसे हुए व्यक्ति को, प्राणी को आर्त कहा है / क्योंकि- विषय-सुख एवं राग-द्वेष के वशीभूत हुआ जीव, अपने हिताहित को भूल जाता है और नानाविध पाप कार्यों में प्रवृत्त होकर कर्मों का बन्ध करता है और परिणाम स्वरूप जन्म-जरा और मरण के प्रवाह में प्रवहमान होता हुआ दुःख एवं पीड़ा का संवेदन करता है / इस लिए क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, विषय-विकार तथा दर्शन मोह और चारित्र मोहनीय कर्म से युक्त समस्त संसारी जीव आर्त कहे जाते हैं / क्योंकि- वे इन दुष्कर्मों से युक्त होकर संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं, रात-दिन जन्म-मरण के जाल में उलझे रहते हैं / ___ लोक याने लोक क्या है ? एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक की समस्त जाति, चार गति एवं 84 लाख योनिवाले जीवों के समूह को लोक कहते हैं / परिघुन याने जो जीव औपशमिक आदि प्रशस्त परिणामों से रहित हैं और मोक्ष मार्ग में सहायक साधनों से दूर हैं, उन अज्ञानी जीवों को “परिजुण्णे-परिधून" शब्द से अभिव्यक्त किया है। परिवून के भी द्रव्य और भाव दो भेद किए गए हैं / द्रव्य परिधून के सचित्त और अचित्त के भेद से दो प्रकार हैं / जीर्ण-शीर्ण शरीर या परिजीर्ण वृक्ष को सचित्त परिघून और