Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 142 // १-१-२-२(१५)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य यह सभी एकार्थक पर्यायवाची शब्द हैं... अथवा तो पृथ्वीकाय जीवोंको वध-पीडा हो ऐसे आरंभ-समारंभका त्याग करनेवाले साधु दो प्रकारके होते हैं... 1. प्रत्यक्षज्ञानी 2. परोक्षज्ञानी... ऐसा कहकर गुरुदेव शिष्यको कहते हैं कि- देखो, यह संयमी (मनुष्य) जैन-साधुलोग पृथ्वी-कायका वध नहिं करते हैं... और जो शाक्य आदि कुतीर्थिक है वे बोलते हैं कुछ और करतें है कुछ... याने कहतें हैं कि- हम अणगार- साधु हैं, हम जीव-जंतुओंके रक्षणमें तत्पर हैं. हमारा कषाय तथा अज्ञान स्वरूप अंधकार नष्ट हुआ है इत्यादि प्रतिज्ञा को उद्घोषित करते हैं किन्तु उनकी दैनिक जीवन चर्या में देखें तब दिखेगा कि- (क्षणे क्षणे) पृथ्वीकाय आदि जीवोंका वध- (पीडा) होता हि रहता है... जैसे कि- चौसठ (64) प्रकारकी मिट्टीसे स्नान करनेवाले शुचिवादी मनुष्य, हम अत्यंतशुचिः = पवित्र हैं ऐसा कहते हैं... किंतु गाय (पशु) के मृत-कलेवरको अपवित्र कहकर त्याग करके चाकर-किंकर द्वारा उन पशुओंके चमडे हड्डी मांस स्नायु आदिका अपने उपयोगके लिये संग्रह करवाते है... इस प्रकार पवित्रताके अभिमानको धारण करनेवाले उन्होंने अपवित्र पशुओंके कलेवरकी कौनसी चीजका त्याग किया ? इसी प्रकार यह शाक्य आदि मतवाले साधुलोग भी ऐसे हि साधु नामको धारण करते हैं किंतु साधुगुणोमें नहिं रहते... और गृहस्थ जनोंके कार्य-क्रियाओंका त्याग नहिं करतें... किंतु भिन्न भिन्न प्रकारके हल, कुदाली, कोश, त्रिकम आदि शस्त्रोंसे पृथ्वीकाय जीवोंका वध करते हैं... इस प्रकार विविध शस्त्रोंके द्वारा पृथ्वीकायका आरंभ-समारंभ स्वरूप वध करनेवाले लोग पृथ्वी-कायके आश्रित ऐसे जल-वनस्पति आदि जीवोंकी भी हिंसा करते हैं... इस प्रकार पृथ्वीकाय जीवोंके वैरी-दुश्मन ऐसे शाक्य आदिओंका असाधुपना कहकर अब विषयसुखोंकी अभिलाषासे मन-वचन-कायासे करण करावण एवं अनुमोदन स्वरूप उन लोगोंमें हो रही हिंसाका स्वरूप कहते हैं... VI सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- पृथ्वीकाय प्रत्येक शरीरी है / और वे असंख्यात हैं, और उनका शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना छोटा है / वे सभी जीव पृथ्वीकाय देह स्वरूप हैं / यह पृथ्वी, असंख्यात जीवों का पिण्ड है / इससे पृथ्वीकाय जीवों की चेतनता और असंख्य जीवों का पिंड, यह दोनों बातें सिद्ध हो जाती है / इसलिए प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान से युक्त संयमशील अनगार-मुनिजन पृथ्वीकायिक जीवों के आरंभ-समारंभ से निवृत्त होकर उनकी रक्षा में संलग्न होकर संयम का परिपालन करते हैं / परन्तु, इसके विपरीत कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं, जो अपने आप को अनगार-साधु;