Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 134 1 -1-2-1(14) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन यह दो गाथा सूत्रके अर्थको हि कहती है फिर भी वध द्वार के प्रसंगमें नियुक्तिकारने कही है... अतः इन दो गाथाकी व्याख्या करनी जरूरी है, अतः यहां लिखी गइ है... यह सूत्र आगे क्रमांक पंद्रह (15) में है... अब इस पृथ्वीकायका वध, करण करावण और अनुमोदनके द्वारा होता है... वह बात अब कहते हैं... नि. 101 कितनेक लोग स्वयं पृथ्वीकायका वध करते हैं, कितनेक लोग अन्यके द्वारा पृथ्वीकायका वध करवाते हैं, और कितनेक लोग यके वधकी अनुमोदना करते हैं... अब जो लोग पृथ्वीकायका वध करते हैं वे लोग पृथ्वीकायके आश्रित अन्य जल-अग्नि . आदि जीवों का भी वध करते हैं... यह बात अब बताते हैं... नि. 102 जो लोग पृथ्वीकाय जीवोंका वध करते है वे पृथ्वीकायके आश्रित जल-अग्नि-वायुवनस्पति-बेइंद्रिय तेइंद्रिय चरिंद्रिय-पचेद्रिय जीवोंका भी वध करते हैं... वे इस प्रकार... जैसे कि- उदुंबर-वड-पीपलेके फलको खानेवाला मनुष्य उन फलोंमें रहे हुए त्रस (चलते फिरते) जीवोंका भी वध करता है... तथा सकारण या निष्कारण अथवा तो जान बुझकर या अनजानसे पृथ्वीकाय जीवोंका वध करनेवाला मनुष्य स्पष्ट दीखाइ देनेवाले मेंढक आदि तथा स्पष्ट नहिं दीखाइ देनेवाले पनक (लील-फुल-निगोद) आदि जीवों का भी वध करता है... इसी बातको स्पष्ट रूपसे कहते हैं... नि. 103 पृथ्वीकायका वध करनेवाला मनुष्य पृथ्वीकायके आश्रित अन्य बहोत सारे जीवोंका भी वध करता है... वे जीव सूक्ष्म होते है, बादर भी होते हैं... तथा पर्याप्त और अपर्याप्त भी होते हैं... यहां सूक्ष्म जीवोंका वध मन-वचन-कायासे असंभव है फिर भी आत्माके अशुभ अध्यवसाय-परिणामके कारणसे विरतिके अभावमें उनकी हिंसा-वध होता है... ऐसा सर्वज्ञ प्रभुजी कहते हैं.... अब विरति द्वार कहते हैं... नि. 104/105 इस प्रकार पृथ्वीकाय जीवोंको पहचानकर और उनके वध तथा कर्मबंधको जानकर