Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 116 1 -1-1-11 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मांसभक्षण आदि क्रियाओंमें प्रवृत्त होता है... और अल्प याने क्षणिक सुखके लिये अभिमानसे घेरे हुए चित्तवाला यह जीव बहुत आरंभ एवं परिग्रहसे बहोत हि अशुभ कर्मोको ग्रहण करता है... कहा भी है कि- सर्व संगके त्यागी, निर्भय एवं शम-सुख में लीन साधु लोगों को निरस एवं लुखे सुके भिक्षा-भोजन में. जो स्वाद-मधुरता प्राप्त होती है, वैसी मधुरता सेवक लोग, मंत्री वर्ग, पुत्र परिवार एवं सौंदर्य-लावण्यवाली नारीओंसे घेरे हुए राजाको बत्तीस पक्वान्न एवं तैंतीस प्रकार के शाकवाले भोजनमें भी स्वाद-मधुरता नहि मीलती... क्योंकि- राजाको सदैव भय आकुलता एवं आर्त-रौद्र ध्यान चलता रहता है, जब कि- साधु लोग सदैव निर्भय स्वस्थ आत्मदृष्टिवाले हैं, एवं धर्मध्यान में रहतें हैं... जब कि- संसारी अज्ञानी लोग, तरूण कुंपल एवं पलाश पत्रके जैसे चंचल जीवितमें आसक्त होकर, जीववध आदि पापस्थानकोंमें प्रवृत्त होते हैं, और इसी जीवितकी परिवंदन, मानन और पूजनके लिये व्याकुल होने से हिंसा आदिमें भी प्रवृत्त होता है... . परिवंदन याने स्तवना, प्रशंसा पाने के लिये चेष्टा करता है, वह इस प्रकार- मैं मयूर आदिके मांसको खानेसे बलवान, तेजसे देदीप्यमान राजकुमारकी तरह लोगोंसें प्रशंसाका पात्र बनूंगा... मानन याने अन्य लोगों का, मेरे स्वागतके लिये खडे होना, बैठनेके लिये आसन देना और हाथ जोडकर वंदन करना, इत्यादि पाने के लिये चेष्टा करनेवाला जीव कर्म बांधता है... पूजन याने धन, वस्त्र, आहार, पानी, सत्कार, प्रणाम सेवा आदि पाने के लिये क्रियाओंमें प्रवृत्ति करनेवाला जीव कर्मोसे बद्ध होता है... वह इस प्रकार- "यह पृथ्वी वीरभोग्या है" ऐसा मानकर पराक्रम करता है, और दंडके भयसे सभी प्रजा उससे डरती है... इस प्रकार राजाओंमें और अन्य लोगोंमें भी यथासंभव समझ लें... सारांश यह रहा कि- परिवंदन, मानन और पूजनको पाने के लिये राजा आदि प्रधान मनुष्य जीवन में कर्मबंधन करतें हैं... केवल अपने हि परिवंदन आदिके लिये हि कर्म नहिं बांधतें, किंतु दूसरोंके लिये भी... वह इस प्रकार- जन्म और मरणसे छुटनेके लिये, क्रौंचारिवंदनादि क्रियाएं करता है, तथा अन्य जन्ममें इच्छित मनोज्ञ वैषयिक सुख समृद्धि पाने के लिये वह मनुष्य, ब्राह्मणादि लोगों को इच्छित वस्तुएं देता है... मनु ऋषिने भी कहा है कि- जल का दान करनेवाला तृप्तिको पाता है, अन्न का दान देनेवाला अक्षयसुख पाता है, तिल का दान देनेवाला इष्ट प्रजा-पुत्र परिवार प्राप्त करता है, और अभयदान देनेवाला दीर्घ आयुष्यको प्राप्त करता है। इसी प्रकार मरणसे छूटने के लिये भी पितृपिंडदान आदि क्रियाओंमें प्रवृत्त होता है, अथवा तो इन्होंने “मेरे संबंधीको मार डाला है" ऐसा याद करके वैरका बदला लेनेके लिये वध एवं बंधन आदिमें प्रवृत्त होता है... अथवा तो जीव अपने आपके मरणसे छुटनेके लिये दुर्गा आदि देवीओंके आगे अपनी