Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 120 卐 1 - 1 - 1 - 13 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परिज्ञात कर्मा होता है / तिबेमि-एसा मैं करता हूं / IV सूत्रार्थ : लोकमें जिन्होंको यह सभी कर्म समारंभ परिज्ञात हुए हैं, वे हि परिज्ञातकर्मवाले सच्चे मुनी है... इस प्रकार मैं (सुधर्मस्वामी) कहता हुं // 13 / / v टीका-अनुवाद : समस्त वस्तुओंको जाननेवाले भगवान् वर्धमान स्वामीजी केवलज्ञानसे संपूर्ण विश्वको प्रत्यक्ष पाकर कहते हैं कि- जो साधु पूर्व कहे हए ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मोके बंधके कारणभूत क्रियाओंको जानता है, वह हि साधु जगतकी तीनो कालकी अवस्थाओंको जाननेके कारणसे मुनि है, और यह मुनि ज्ञ परिज्ञासे पाप क्रियाओंको जानता है और प्रत्याख्यान परिज्ञासे कर्मबंधके कारणभूत ऐसे सभी मन-वचन और कायाके व्यापारोंको त्याग करता है... ऐसा करनेसे हि मोक्षके कारणभूत ज्ञान और क्रिया का स्वीकार होता है... ज्ञान और क्रियाके विना मोक्ष नहिं होता है... कहा भी है कि- "ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः" यहां 'इति' शब्दसे यह कहते हैं कि- इस प्रथम उद्देशकमें "इतना हि यह आत्म पदार्थका विचार और कर्मबंधके कारणोंका विचार" बतलाया है अथवा तो "इति" याने यह जो मैं कहता हुं, जो मैं पहले कह चूका हुं और जो कुछ भी आगे कहुगां वह सभी बातें भगवान् वर्धमान स्वामीजी के मुखसे साक्षात् सुनकर हि कहता हूं और कहूंगा... VI सूत्रसार : ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों के बन्ध का कारण क्रिया विशेष है, और उन्हीं क्रियाओं को कर्म समारंभ कहते हैं / उनका भली-भांति ज्ञाता अर्थात् कर्मबन्ध के कारणभूत क्रियाओं के सम्यक्तया जानने तथा तदनुसार उनका परित्याग करने वाला, जो मुनि है वह परिज्ञातकर्मा कहलाता है / परिज्ञातकर्मा का तात्पर्य है- वह मुनि है, कि- जो ज्ञ परिज्ञा से पापक्रियाओं के वास्तविक स्वरूप को जानता, समझता है और प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उन पापक्रियाओं का परित्याग करता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि- वह मुनि ज्ञान पूर्वक आचरण में प्रवृत्त होता है / उसका ज्ञान, आचरण से समन्वित है और आचरण ज्ञान के प्रकाश से ज्योर्तिमय है / उसके जीवन में ज्ञान और क्रिया का या यों कहिए कि विचार और आचार में विरोध नहीं, किन्तु समन्वय है / और इन दोनों का समन्वय ही मोक्ष मार्ग है, अतः आत्मा को क्रिया से सर्वथा निवृत्त करने वाला है / किसी भी गन्तव्य स्थान पर पहुंचने के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों के समन्वित प्रयत्न की आवश्यकता होती है / मनुष्य को जिस स्थान पर पहुंचना हो, उस स्थान का एवं उसके रास्ते का ज्ञान होना ज़रूरी है और फिर तदनुरूप क्रिया की आवश्यकता है / ज्ञान और क्रिया के सुमेल से ही प्रत्येक व्यक्ति अपने लक्ष्य