Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 1 - 4 // 79 यहां... जीव शब्दसे प्रथम उद्देशक का अधिकार दर्शाया... और जीवकाय पदसे शेष 6 उद्देशकों का अधिकार यथाक्रमसे पृथ्वीकाय आदिके निर्देशसे दर्शाया है... नि. 65, 66, 67 यहां 'सन्मति या स्वमति से जानता है। ऐसा जो कहा है उसका अर्थ है कि- वह आत्मा अवधिज्ञानसे संख्याता या असंख्याता भव जानता है... मनःपर्यव ज्ञानसे भी संख्यात या असंख्यात भव जानता है... और केवलज्ञानी तो नियमसे अनन्त भवोंको जानते हैं... तथा जातिस्मरण ज्ञानवाले तो नियमसे संख्यात भव हि जानते है... यहां सन्मति या स्वमति का स्पष्ट अर्थबोध हो इस हेतु तीन (3) दृष्टांत कहते हैं... 1. वसंतपुर नगरमें जितशत्रु राजा, धारिणी महादेवी, और उनका धर्मरूचि नामका पुत्र... एक बार वह राजा तापस-दीक्षाको लेनेकी इच्छावाले हुए, तब धर्मरूचि पुत्रको राज्यसिंहासन पे बैठानेकी तैयारी करने लगे तब धर्मरूचि ने मां धारिणीदेवीसे पुछा कि- पिताजी राज्यलक्ष्मीका त्याग क्यों करते हैं ? मां ने कहा- हे पुत्र ! यह राज्यलक्ष्मी चंचल है... एवं नारक आदि सकल दःखोका हेत भी है. स्वर्ग एवं मोक्ष के मार्गमें अर्गला के समान है तथा निश्चित हि अपाय याने संकटदायक है इंस जन्म में भी यह समृद्धि में मात्र अभिमान स्वरूप फल हि देती है कि- जो अभिमान, सभी दुःखोंका कारण है... इसी कारणसे हे पुत्र ! इस राज्यलक्ष्मीका त्याग करके सकल सुखके कारण ऐसे धर्म को करनेके लिये तुम्हारे पिताजी तत्पर हुए है... . यह बात सुनकर धर्मरूचिने कहा कि- यदि ऐसी बात है, तब क्या मैं पिताजीको अनिष्ट हुं ? कि- जिस कारणसे ऐसे सकलदुःखोंके कारणरूप यह राज्यलक्ष्मी मुझे देते हैं... कि जो राज्यलक्ष्मी सकलकल्याणके हेतु ऐसे धर्मसे मुझे दूर रखेगी... पुत्रके ऐसे कहने पर जब पिताजीने अनुमति दी तब वह धर्मरूचि भी पिताजीके साथ आश्रममें गये... वहां तापस-धर्मके उचित सभी क्रियाओंको यथाविधि पालन करते हुए आश्रममें रहते हैं.... अब एकबार अमावस्या के एक दिन पहेले कोइ एक तापसने उद्घोषणा की, कि- सुनो सुनो हे तापसजनो / कल अनाकुट्टि (अहिंसा) रहेगी, अतः आज हि इंधन, पुष्प, दर्भ, कंद, फल, मूल आदिका ग्रहण कीजीयेगा... यह उद्घोषणा सुनकर धर्मरूचि ने पिताजीसे पुच्छा कि- हे तात ! यह अनाकुटि क्या है ? तब पिताजीने कहा कि- हे पुत्र ! कंद, फल आदिका छेदन-भेदन न करना यह हि अनाकुट्टि है, और वह अनाकुट्टि अमावस्यादि विशिष्ट पर्वोके दिनोंमें होती है, अतः कंद-फल आदिके छेदनकी क्रिया सावद्य (हिंसक) होनेसे इन दिनोंमें नहिं की जाती है... यह बात सुनकर धर्मसचिने शोचा कि- यदि हमेशा हि अनाकुटि हो तब बहुत अच्छा...