Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 86 1 - 1 - 1 - 4 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन ने अपने आकार की एक स्वर्णमयी पुतली बनवाई और छहों राजकुमारों को बुलाकर उन्हें संसार का स्वरूप समझाकर तथा अपनी पूर्व भव सम्बन्धी मित्रता का परिचय देकर प्रबोधित किया / राजकुमारी के उपदेश से छहों राजकुमार अपने स्वरूप का चिन्तन करने लगते हैं और फल स्वरूप उन्हें जाति-स्मरणज्ञान हो जाता है / इस तरह तीर्थकर भगवान के अतिरिक्त अन्य अतिशय ज्ञानी के उपदेश से भी प्राप्त होनेवाले पूर्व भव के ज्ञान के अनेकों उदाहरण आगमों में मिलते हैं। अस्तु, यह साधन भी ज्ञान प्राप्ति में कारण है / 'सोऽहम्' पद का अर्थ होता है - वह मैं हूं / पहले बताया जा चुका है कि सन्मति या स्वमति, पर-व्याकरण और परेतर-उपदेश इन तीनों कारणों से कई जीवों को यह बोध प्राप्त होता है कि द्रव्य एवं भाव दिशा-विदिशाओं में परिभ्रमण करनेवाला यह मेरा आत्मा ही मैं हूं / 'सः' से पूर्वादि दिशाओं में भ्रमणशील, इस अर्थ का बोध होता है, और 'अहम्' पद, मैं अर्थ का परिचायक है / 'स:+अहम्' दोनों पदों का संयोग करने से 'सोऽहम्' बनता है और उसका अर्थ होता है-दिशा-विदिशाओं में भ्रमणशील वह मैं ही हूं / इसी भाव को सूत्रकार ने 'सोऽहम्' शब्द से अभिव्यक्त किया है / 'सोऽहम्' में पठित 'सः और अहम्' दोनों पदों को आगे-पीछे करने से एक अभिनव अर्थ का भी बोध होता है / वह इस प्रकार है - "अहं सः'' का अर्थ है मैं वह हूं और ‘सोऽहम्' शब्द का अर्थ है वह मैं हूं / दोनों अर्थों को संकलित करने पर फलितार्थ यह निकलता है कि 'जो मैं हं वही वह आत्मा है और जो वह आत्मा है वही मैं हं।' इस फलितार्थ से आत्मा और परमात्मा के अभेद का बोध होता है / प्रस्तुत प्रसंग में 'सः' शब्द से समस्त कर्म बन्धन से रहित, स्व स्वरूप में प्रतिष्ठित सिद्ध भगवान की आत्मा का ग्रहण किया गया है और 'अहम्' पद कर्मों से आबद्ध संसारी आत्मा का परिचायक है / शुद्ध आत्मस्वरूप की अपेक्षा दोनों एक समान गुणवाले हैं / अन्तर है तो केवल इतना ही कि एक तो (सिद्ध भगवान) सम्यम् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की उत्कट साधना से समस्त कर्म बन्धनों को तोड़कर जन्म-जरा और मृत्यु के चक्कर से मुक्त हो गए हैं, कर्म एवं कर्मजन्य दुःखों से छुटकारा पा चूके हैं और दूसरे (संसारी जीव) कर्म बन्धन से आबद्ध हैं, ऊर्ध्व एवं अधोगति में परिभ्रमणशील हैं / एक शब्द में यों कह सकते हैं कि- सिद्ध, कर्म मल से रहित है और दुसरा संसारी आत्मा, अभी तक कर्ममल यक्त है / परंत कर्मबन्ध से रहित और कर्मबन्ध सहित जीवों के आत्मस्वरूप में कोई अन्तर नहीं है / क्योंकि सभी जीव, आत्मा से ही परमात्मा बनते हैं / परमात्मा, यह कोई आत्मा से अलग शक्ति नहीं है / इस संसार में परिभमण करनेवाली आत्माओं ने ही विशिष्ट साधना के पथ पर गतिशील होकर आत्मा से परमात्म-पद को प्राप्त किया है और प्रत्येक आत्मा में उस पद को प्राप्त करने की सत्ता है / परंतु, वही आत्मा, परमात्मा बन सकती है, जो साधना के महापथ पर गतिशील होकर राग-द्वेष एवं कर्म बन्धन को तोड़ डालती