Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-1-6 // ___प्रश्न हो सकता है कि जब आदि और अन्त के ग्रहण से मध्यवर्ती का ग्रहण हो जाता है, तो फिर सूत्रकार ने “कारवेसुं चऽहं" इस भूतकालिक कारित क्रिया का निर्देश क्यों किया ? उक्त न्याय से इस भूतकालिक कारित क्रिया भेद का भी ग्रहण किया जा सकता था / इस प्रश्न का समाधान करते हुए शीलांकाचार्यजी ने कहा है कि "अस्यैवार्थस्याविष्करणाय द्वितीयो विकल्प: 'कारवेसुं चऽहं' इति सूत्रेणोपात्तः / " . अर्थात्-आदि और अन्त के ग्रहण करने पर मध्यवर्ती पदों का ग्रहण हो जाता है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने 'कारवेसुं चऽहं' पद का प्रयोग किया है / यदि उक्त पद का प्रयोग न किया होता तो इस न्याय की परिकल्पना भी कैसे की जा सकती थी ? अतः उक्त न्याय का यथार्थ रूप समझ में आ सके, इसलिए इस पद का प्रयोग किया गया। इसके अतिरिक्त, यह भी समझ लेना चाहिए कि- मूल सूत्र में प्रयुक्त तीन च-कार से क्रियाओं फा और अपि शब्द से मन, वचन और काया-शरीर का ग्रहण किया गया है / प्रस्तुत सूत्र में यह समझने एवं ध्यान देने की बात है कि- मन, वचन और शरीर के द्वारा तीनों कालों में होने वाली कृत, कारित और अनुमोदित सभी क्रियाएं आत्मा में होती है। उक्त सभी क्रियाओं में आत्मा की परिणति स्पष्ट परिलक्षित हो रही है / क्यों कि- धर्मी में परिवर्तन हुए बिना धर्मों में परिवर्तन नहीं होता / इसी अपेक्षा से पहले आत्मा में परिणमन होता है, बाद में क्रिया में परिणमन होता है / अतः क्रिया के परिणमन को आत्म परिणति पर आधारित मानना उचित एवं युक्ति संगत है / निष्कर्ष यह निकला कि- अहं पद से अभिव्यक्त जो आत्मा है, उस का परिणमन ही विशिष्ट क्रिया के रूप में सामने आता है / अतः विभिन्न कालवर्ती क्रियाओं में कर्तृत्व रूप से अभिव्यक्त होने वाला आत्मा एक ही है। हम सदा-सर्वदा देखते हैं, अनुभव करते हैं कि तीनों कालों की कृत, कारित एवं अनुमोदित क्रियाएं पृथक् हैं और इन सब का पृथक्-पृथक् निर्देश किया जाता है / तीनों कालों की क्रियाओं में कालगत भेद होने से अर्थात् विभिन्न काल स्पर्शी होने के कारण ये समस्त क्रियाएं एक दूसरे से पृथक् हैं, परन्तु इन विभिन्न समयवर्ती क्रियाओं में विशिष्ट रूप से प्रयुक्त होने वाला 'मैं' अर्थात् 'अहं' पद एक ही है / और इन विभिन्न समयवर्ती विभिन्न क्रियाओं में जो एक शृंखला-बद्ध संबंध परिलक्षित हो रहा है, वह आत्मा की एक रूपता के आधार पर ही अवलम्बित है / क्योंकि प्रत्येक क्रिया एक-एक काल-स्पर्शी है, जब कि आत्मा तीनों फाल को स्पर्श करती है / यदि आत्मा को त्रिकाल-स्पर्शी न माना जाए तो उस में त्रिकाल में होने वाली पृथक्-पृथक क्रियाओं की अनुभूति घटित नहीं हो सकती / और न उसमें भूत काल की स्मृति एवं भविष्य के लिए सोचने-विचारने की शक्ति ही रह शकती / अतीत की स्मति एवं अनागत काल के लिए एक रूपरेखा तैयार करने की चिन्तन-शक्ति आत्मा में देखी