Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1-1-10 113 कहा है... प्रत्याख्यान परिज्ञासे जीव कर्मबंधके कारण ऐसे सावधयोगोंका पच्चक्खाण (त्याग) करता है... इसी अर्थको हि नियुक्तिकार कहते हैं... नि.६७ यहां क्रियाके विषयमें “मैंने कीया और मैं करूंगा" ऐसा कहनेसे भूतकाल और भविष्यत्काल का ग्रहण कीया है, अतः उन दोनो के बीचमें रहे हुए वर्तमानकालका और ‘कीया' कहनेसे करवाना और अनुमोदन का संग्रह करने पर नव (9) भेद आत्माके परिणामसे योग स्वरूप माना है... यहां आत्म परिणाम स्वरूप इन नव क्रियाओंसे कर्मबंधका विचार कीया है... कहा भी है कि- “योगोंके कारणसे हि कर्मबंध होता है। यह बात अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान या जातिस्मरण-ज्ञान स्वरूप सन्मति (स्वमति) के द्वारा कोइक जीव, प्रत्यक्ष हि जानता है, और कोइक जीव पक्ष, धर्म, अन्वय और व्यतिरेक लक्षणवाले हेतुओंकी युक्तिसे अनुमान-प्रमाण के द्वारा जानता है.... अब प्रश्न होता है कि- यह जीव कटुकविपाक वाले कर्मोके आश्रवहेतुभूत क्रियाओंमें क्यों प्रवृत्त होता है ? इस प्रश्नका उत्तर, सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... VI सूत्रसार : यह हम पहले बता चुके हैं कि- जीवन में ज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि ज्ञान प्रकाश है, आलोक है / उसके उज्ज्वल; समुज्ज्ल एवं महोज्ज्वल प्रकाश में मनुष्य वस्तु की उपयोगिता और अनुपयोगिता को भली-भांति समझ सकता है / साधक को हेय और उपादेय वस्तुओं का तथा उन्हें त्यागने एवं स्वीकार करने का बोध भी सम्यग् ज्ञान से ही होता है। अतः ज्ञान का उपयोग एवं महत्त्व ज्ञानी पुरुष ही जान सकता, अन्य नहीं। एक अबोध बालक ज्ञान के सही एवं वास्तविक मूल्य को नहीं समझता / उसे इस बात का पता ही नहीं है कि ज्ञान जीवन के कण-कण को प्रकाश से जगमगा देता है, उज्ज्वल आलोक से भर देता है / वह यह नहीं जानता कि ज्ञान मनुष्य का अन्तर्चक्षु है, जिसके अभाव में बाह्य चक्षु होते हुए भी वह अंधा समझा जाता है / और विना शृंग-पूंछ का पशु माना जाता है / ज्ञान के इस महत्त्व से अनभिज्ञ होने के कारण ही वह दिन भर खेलता-कूदता एवं आमोदप्रमोद करता रहता है / परन्तु ज्ञान का महत्त्व समझने के बाद उसका जीवन बदल जाता है / खेल-कूद का स्थान शिक्षा ले लेती है / वह दिन-रात ज्ञान की साधना में संलग्न रहने लगता है / यही स्थिति अज्ञ एवं ज्ञानी पुरुष की है / अज्ञ व्यक्ति जहां दिन-रात विषयवासना में निमज्जित रहता है, भौतिक सुखों के पीछे निरन्तर दौड़ता फिरता है, वहां ज्ञानी पुरुष दिन-रात, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते ज्ञान की साधना में संलग्न रहता