Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
View full book text
________________ म 1 - 1 - 1 - 7 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परिज्ञा के दो भेद है 1. ज्ञ परिज्ञा 2. प्रत्याख्यान परिज्ञा... ज्ञ परिज्ञा से आत्माका और कर्मबंधका अस्तित्व इन सभी कर्म-क्रियाओंसे जाना जा शकता है... और प्रत्याख्यान परिज्ञा से पाप के हेतु ऐसे सभी कर्म-क्रियाओंका त्याग होता है... इस प्रकार यहां सामान्यसे जीवका अस्तित्व सिद्ध कीया... अब उसी आत्माका दिशाओं एवं विदिशाओं में भटकने का हेतु दिखाने के साथ अपाय = कष्टोंको बताते हुए कहते हैं किजो जीव आत्म-कर्मादिवादी है, और वह दिशा एवं विदिशाओं में भटकनेसे छुटने योग्य है... और जो जीव आत्म-कर्मादिवादी नहिं है उसको होनेवाला कर्मफल (विपाक) सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... VI सूत्रसार : ___ पूर्व सूत्र में यह स्पष्ट कर दिया था कि तीनों काल में कृत, कारित एवं अनुमोदित की अपेक्षा से क्रिया के नव भेद बनते हैं और इन सब का मन, वचन और काया- शरीर के साथ संबन्ध जुड़ा हुआ होने से, इनके 27 भेद होते हैं / प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि सारे लोक में 27 तरह की क्रियाएं हैं, इस से अधिक या कम नहीं है, और वे क्रियाएं कर्म-बन्धन के लिए कारणभूत है / क्योंकि जब आत्मा में क्रियाओं के रूप में परिणति होती हैं तो उसके आस-पास में स्थित कर्म-वर्गणा के पुद्गलों का आत्मा में संग्रह होता है। इस तरह वे क्रियाएं कर्मबन्ध का कारण-भूत मानी जाती हैं / इनके अभाव में आत्मा कर्मों से सर्वथा अलिप्त रहती है / क्योंकि कृत, कारित आदि क्रियाओं के कारण आत्मा में चंचलता होती है और आत्म परिणामों की परिणति के अनुरूप आस-पास के क्षेत्र में स्थित कर्म-वर्गणा के पुद्गलों में गति होती है और उनका आत्म-प्रदेशों के साथ संबन्ध होता है / अतः जब तक आत्मा में क्रियाओं का प्रवाह प्रवहमान है. तब तक कर्म का आगमन भी होता रहता है। हां, यह बात अवश्य समझने की है कि क्रिया से कर्मों का संग्रह होता है, और कषायों के अनुसार आत्म-प्रदेशों के साथ उनका संबन्ध होता है परन्तु जब तक क्रिया के साथ रागद्वेष एवं कषाय की परिणति नहीं होती तब तक कर्मो में तीव्र रस एवं दीर्घस्थिति का बन्ध नहीं होता, या यों कहना चाहिए कि- क्रिया से प्रकृति और प्रदेश बन्ध अर्थात् कर्मों का संग्रह मात्र होता है और राग-द्वेष एवं काषायिक परिणति से अनुभाग-रस बन्ध और स्थिति बन्ध होता है और यही बन्ध आत्मा को संसार में परिभ्रमण करने की स्थिति में ले आता है / क्रिया या योगों की प्रवृत्ति से कर्म का संग्रह होता है, अतः योग, कर्म-बन्ध में कारणभूत है / परंतु राग-द्वेष रहित योग प्रवृत्ति कर्म संग्रह अवश्य करती है परंतु बन्ध का कारण नहीं बनती / जैसे तेरहवें गुणस्थान में क्रियाएं अर्थात् योगों की प्रवृत्ति होती है और उस प्रवृत्ति से कर्म प्रवाह का आगमन भी होता है, परन्तु राग-द्वेष की परिणति के अभाव