Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 卐१-१-१-६॥ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इससे आत्मा की परिणामी नित्यता भी सिद्ध एवं परिपुष्ट होती है / जो साधक आत्मा के यथार्थ स्वरूप को अभिव्यक्त कर सकता है, वह लोक के स्वरूप का भी भली-भांति विवेचन कर सकता है / क्योंकि आत्मा की गति लोक में ही है और वह आत्मा, लोक में ही स्थित है / धर्म और अधर्म, यह दो द्रव्य आत्मा को गति देने एवं ठहरने में सहायक होते हैं अर्थात् जहां धर्मास्तिकाय हैं, वहीं आत्मा गति कर सकती है, और जहां अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व है, वहीं ठहर भी सकती है / तथा एक गति से दूसरी गति में परिभमणशील आत्मा कर्म पुद्गलों से आबद्ध है / इससे पुद्गलों के साथ भी उसका संबन्ध जुड़ा हुआ है / अतः यों कह सकते हैं कि धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल चारों द्रव्य लोकाकाश में स्थित हैं, या उक्त चारों द्रव्यों का जहां अस्तित्व है, उसे लोक कहते हैं / इस तरह लोक के साथ आत्मा का सम्बन्ध होने से आत्मज्ञान के साथ लोक के स्वरूप का परिबोध हो जाता है और जिसे लोक के स्वरूप का परिज्ञान होता है, वह उसका विवेचन भी कर सकता है। इस दृष्टि से आत्मवादी के पश्चात् लोकवादी का उल्लेख किया गया / __ आत्मा का लोक में परिभ्रमण कर्म सापेक्ष है / वही आत्मा, संसार-लोक में यत्रतत्र-सर्वत्र परिभ्रमण करती है, कि-जो आत्मा कर्म शृंखला से आबद्ध है / अस्तु, लोक के ज्ञान के साथ कर्म का भी परिज्ञान हो जाता है और कर्म को जानने वाला आत्मा उसके स्वरूप का सम्यक्तया प्रतिपादन भी कर सकता है / इसी कारण लोकवादी के पश्चात् कर्मवादी का उल्लेख किया गया / कर्म, क्रिया से निष्पन्न होता है / मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति विशेष को किया कहते हैं / इस मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक प्रवृत्ति से आत्मा के साथ कर्म का संबन्ध होता है / इस तरह कर्म और क्रिया का विशिष्ट सम्बन्ध होने से, कर्म का ज्ञाता क्रिया को भली-भांति जान लेता है और उसका अच्छी तरह वर्णन भी कर सकता है / इस लिए कर्मवादी के पधात् क्रियावादी को बताया गया / मुमुक्षु के लिए आत्मा, लोक, कर्म एवं क्रिया का यथार्थ स्वरूप जानना आवश्यक है। इन सबका यथार्थ स्वरूप जाने बिना साधक, मुक्ति के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता और उसकी साधना में भी तेजस्विता नहीं आ पाती / इन सबमें आत्मतत्त्व मुख्य है / उसका सम्यक्तया बोध हो जाने पर, अवशेष तीनों का ज्ञान होने में देर नहीं लगती, उसमें फिर अधिक श्रम नहीं करना पड़ता / क्योंकि लोक, कर्म एवं क्रिया का आत्मा के साथ संबन्ध जुड़ा हुआ है / अतः शासकार का यह कथन पूर्णांशतया सत्य है कि जो एक को भली-भांति जान लेता है वह सबका ज्ञान कर लेता है / और यह लोक कहावत भी सत्य है - 'एक साधे सब सधे।'