Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 1 - 1 - 5 89 IV सूत्रार्थ : (पुनर्जन्मको जो जानता है) वह हि जीव आत्मवादी लोकवादी कर्मवादी और क्रियावादी है // 5 // V टीका-अनुवाद : - पूर्वकालमें जो आत्मा, नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव आदि अठारह भावदिशा तथा पूर्व आदि 18 प्रज्ञापक दिशाओमें भटका है, ऐसे उस अक्षणिक, अमूर्त, अविनाशी आदि लक्षणवाले आत्माको जो कोई जानता है, वह इस प्रकारसे आत्मवादी है... और जो इस प्रकारके आत्माको नहिं मानता है वह नास्तिक अनात्मवादी है... जो लोग, आत्माको सर्वव्यापी, नित्य, अथवा तो क्षणिक मानते हैं, वे भी अनात्मवादी है... क्योंकि- जो सर्वव्यापी होगा, वह निष्क्रिय होनेके कारणसे उस आत्मा का भवांतर संक्रमण नहिं होगा... और सर्वथा नित्य मानने पर भी मरण न होने के कारणसे भी भवांतर संक्रमण नहि होता है... क्योंकि- नित्यका लक्षण- जो नाश न हो, उत्पन्न भी न हो और सदैव हि स्थिर एक स्वभाववाला जो है वह नित्य है... और आत्माको क्षणिक मानने में आत्माका क्षणांतरमें निर्मूलविनाश होनेके कारणसे 'वह मैं हुँ' ऐसा पूर्वोत्तरानुसंधान कभी भी नहिं हो शकता... जो आत्मवादी है वह हि परमार्थसे लोकवादी है, क्योंकि- जो देखता है वह लोक है, और उसको जो कहता है वह लोकवादी है... ऐसा कहनेसे अद्वैतवादीओंका निरास करके आत्मा अनेक हैं यह बात सिद्ध करी... अथवा तो लोकापाती = लोक याने 14 राजलोक क्षेत्र, अथवा उसमें रहे हुए प्राणीगण... ऐसा कहने से विशिष्ट आकाश खंड को 'लोक' कहा, और वहां जीवास्तिकायका होना है, अतः लोकमें जीवोंका गमन-आगमनका भी निर्देश कीया है... __ अब जो दिशा आदिमें गमनागमनके ज्ञानसे आत्मवादी और लोकवादी सिद्ध हुए हैं, वे हि प्राणिगण कर्मवादी भी है... "जो ज्ञानावरणीयादि कर्मको कहता है वह कर्मवादी" क्योंकिप्राणिगण सर्व प्रथम मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से मनुष्य गति आदि योग्य कर्मोको ग्रहण करता है, और बादमें उन उन विरूप स्वरूपवाली योनिओंमें उत्पन्न होता है... "प्रकृति-स्थिति-रस और प्रदेश स्वरूप कर्म होता है..." ऐसा कहनेसे काल, यदृच्छा, नियति, ईश्वर और आत्मवादीओंका निराश कीया यह समझीयेगा... अब जो कर्मवादी है वह हि क्रियावादी है, क्योंकि- योगके निमित्तसे कर्मबंध होता है, और योग व्यापार स्वरूप है, और वह व्यापार क्रिया स्वरूप है, इसीलीये कार्यस्वरूप कर्मको कहने से उसके कारणभूत क्रियाका भी वह वास्तवमें वादी (कथन करनेवाला) है हि, क्योंकि