Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 卐१-१-१-४॥ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन संसार एवं मोक्ष के मार्ग का परिज्ञान होता है / यह मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान सामान्य और विशेष दो प्रकार के होते हैं / परंतु सामान्य मति श्रुत से, मैं पूर्व भव में कौन था, इत्यादि बातों का बोध नहीं होता। इसलिए सामान्य मति-श्रुत ज्ञान को 'सन्मति' नहीं कहते, किन्तु जाति स्मरण, (पूर्व जन्मों को देखने वाला ज्ञान, मति श्रुत ज्ञान का विशिष्ट प्रकार), अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञानों का संग्राहक है और यह विशिष्ट ज्ञान सभी जीवों को नहीं होते हैं / / "सन्मति' ज्ञान प्राप्ति का अंतरंग कारण है, मोहनीय एवं ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम या क्षय से आत्मा को विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति होती है या यों कहिए कि ज्ञानावरणीय कर्म का आवरण जितना हटता जाता है, उतना ही आत्मा में अस्तित्व रूप में स्थित ज्ञान का प्रकाश प्रकट होता रहता है / जब पूर्णतः आवरण हट जाता है, तो आत्मा में स्थित अनन्त ज्ञान प्रकट हो जाता है। इन विशिष्ट ज्ञानों के द्वारा आत्मा अपने स्वरूप को एवं पूर्व भव / में वह किस योनि या गति में था ? यह बात जान लेता है / उक्त ज्ञान के द्वारा वह यह भलीभांति जान लेता है कि मैं किस दिशा-विदिशा से आया हूं और मेरा यह आत्मा औपपातिक (उत्पत्तिशील) है तथा जो दिशा-विदिशाओं में परिभ्रमण करता रहा है, वह मैं ही हूं। . 'संमइयाए' पढ़ के संस्कृत में दो रूप बनते है-१ सन्भत्या और 2 स्वमत्या ‘सन्मति' के विषय में उपर विचार कर चुके हैं / अब ज़रा 'स्वमति' के अर्थ पर सोच-विचार लें / 'स्वमति' शब्द भी स्व+मति के संयोग से बना है / स्व का अर्थ आत्मा होता है और मति शब्द ज्ञान का परिचायक है / अतः 'स्वमति' का अर्थ हुआ आत्मज्ञान / साधारणतया सम्यग् ज्ञान को आत्मज्ञान कहते हैं / जो ज्ञान, आत्मा के ऊपर लगे कर्म रज को दर करने में सहायक है या यों कहिए कि जो ज्ञान मोक्ष मार्ग का पथ प्रदर्शक है, तत्त्व का सही निर्णय करने में सहायक है वह आत्मज्ञान है / इस तरह मतिज्ञान से लेकर केवलज्ञान तक के सभी ज्ञान आत्मज्ञान में समाविष्ट हो जाते हैं / परन्तु सूत्रकार को यह सामान्य अर्थ इष्ट नहीं है। वह यहां आत्म ज्ञान से सामान्य मति एवं श्रुत ज्ञान को आत्म ज्ञान के रूप में नहीं स्वीकार करते / क्योंकि साधारणतः ये दोनों ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा रखते हैं। इसी कारण इन्हें परोक्ष ज्ञान माना है / परंतु विशिष्ट ज्ञान इन्द्रिय और मन के सहयोग की अपेक्षा नहीं रखते / जहां इन्द्रिय की पहोंच नहीं है या उनमें जहां के रूप आदि को देखनेसुनने की शक्ति नहीं है, वहां जाति स्मरण, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान से उन पदार्थों को भी आत्मा जान-देख लेता है / जातिस्मरण ज्ञान से आत्मा आंख आदि इन्द्रियों की सहायता के बिना केवल आत्मा के शुद्ध अध्यवसायों से अपने किए गए पूर्व भवों का बिना किसी अवरोधसे अवलोकन कर लेता है / इसलिए 'स्वमति' से विशिष्ट ज्ञानों को ही स्वीकार किया जाता है / उक्त ज्ञान के द्वारा जानने योग्य पदार्थों का परिज्ञान करने में इन्द्रिय एवं