Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 80 卐१-१-१-४॥ श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस प्रकारके अध्यवसाय (विचार) वाले धर्मरूचिको उस अमावस्याके दिन तपोवनके समीप के हि मार्गसे जाते हुए साधुओंका दर्शन हुआ... तब धर्मरूचिने उनसे पुच्छा कि- क्या आज आपको अनाकुट्टि नहिं है ? जिस कारणसे आप वनमें जा रहे हैं... तब साधुओंने कहाहमारे तो जीवन पर्यंत हि अनाकुट्टि है... ऐसा कहकर साधुलोग वहांसे आगे बढ गये..: यहां धर्मरूचि को साधुकी बात सुनकर ऊहापोह-विचारणासे जाति-स्मरण ज्ञान हुआ... वह इस प्रकार- मैंने जन्मांतरमें प्रव्रज्या ली थी, साधु-जीवनके अंतमें देहांत होने पर देवलोकमें देव बना, और वहां से मैं यहां आया हुं... इस प्रकार धर्मरूची तापस को, कोइ विशिष्ट दिशासे मेरा यहां आगमन हुआ है ऐसा जातिस्मरण रूप स्वमतिसे ज्ञान हुआ, और वह धर्मरूचि (तापस) प्रत्येक बुद्ध हुए... इस प्रकार अन्य भी वल्कलचीरि तथा श्रेयांसकुमार आदिके दृष्टांत यहां स्वयं समझ लें... . . - पर-व्याकरण याने अन्यके कहनेसे भी ज्ञान होता है, यहां उदहारण इस प्रकार हैगौतमस्वामीने भगवान् वर्धमान स्वामीजीको पुच्छा कि- हे भगवन् ! क्या मुझे केवलज्ञान नहिं होगा ? तब भगवान् ने कहा कि- हे गौतम ! तुम्हे हम पे बहुत हि स्नेह है, अत: तुम्हे केवलज्ञान नहिं होता है... तब गौतमने कहा कि- हे भगवन् / हां, आप ठीक कहते हो... किंतु ऐसा कौन कारण है जो मुझे आपके प्रति स्नेह है ? तब भगवंतने गौतमस्वामीजीको पूर्वक बहुत भवांतरोंका जो पूर्वसंबंध था वह कह सुनाया... वह इस प्रकार- हे गौतम / तुं चिरकालसे संबंधवाला है, तुं चिरकालसे परिचित है... इत्यादि भगवंतकी बात सुनकर गौतमस्वामीजीको विशिष्ट दिशासे आगमन आदि का ज्ञान हुआ... अन्य से सुनकर ज्ञान होता है, इस विषयमें उदाहरण इस प्रकार है- पूर्व जन्मके परिचित एवं अनुरागी ऐसे 6 राजपुत्र जब उन्नीसवे तीर्थंकर श्री मल्लिजीके साथ गृहस्थावस्थामें सादी (विवाह) के लिये आये थे तब मल्लिजी ने अवधिज्ञानसे पूर्वभवको जानकर उनके प्रतिबोधके लिये कहा कि- पूर्व जन्ममें आपन सातों जनोंने साथ साथ हि दीक्षित होकर प्रवज्या पालन करते थे, और उसके फल स्वरूप वहांसे आयुष्य पूर्ण करके जयंतनामक अनुत्तर विमानमें अनुत्तर सुखका अनुभव कीया इत्यादि बाते इस प्रकार कही कि- वह बात सुनकर वे 6 राजपुत्र लघुकर्मवाले होनेके कारणसे प्रतिबुद्ध हुए, और उन्हे विशिष्ट भाव दिशासे हमारा यहां आगमन हुआ है, ऐसा ज्ञान हुआ... अब प्रस्तुत विषयको लेकर कहते हैं कि- "जो ऐसा जानता है वह मैं हं" इस प्रकार इस 'अहं' पदसे उल्लिखित ज्ञानसे पूर्व आदि दिशाओं से आये हुए आत्माको अविच्छिन्नसंतति (परंपरा) के कारणसे द्रव्यार्थिक नयसे नित्य तथा पर्यायार्थिक नयसे आत्मा अनित्य है, ऐसा जो जानता है वह परमार्थरूपसे आत्मवादी है, यह बात स्वयं सूत्रकार आगेके सूत्रसे कहेंगे... .