Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 7 // 1-1 - 1-4 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मैं उर्ध्व दिशासे आया हुं... मैं नीचेकी दिशासे आया हुं... इत्यादि अथवा तो अन्य कोड़ दिशा या विदिशा से मैं यहां आया हूं... इस प्रकारकी समझ कितनेक विशिष्ट क्षयोपशमवाले जीवों को तीर्थंकरके द्वारा या अन्य अतिशयवाले ज्ञानीओंको के द्वारा होती है... . इस प्रकार विशिष्ट कोड दिशा या विदिशासे आगमनके ज्ञान होनेके बाद उन्हें यह भी ज्ञात होता है कि- मेरे इस शरीरका कोइक अधिष्ठाता है... और वह ज्ञान-दर्शन एवं उपयोग लक्षणवाला आत्मा है... तथा वह आत्मा, भव-भवान्तरमें संक्रमण करनेवाला है... और वह असर्वगत विश्वव्यापी नहि, किंतु शरीरव्यापी है, तथा कर्मफल का भोक्ता, अरूपी, अविनाशी और शरीरमें हि फैलकर रहा हुआ है... इत्यादि गुणवाला आत्मा है... वह आत्मा द्रव्य, कषाय, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य के भेदसे आठ प्रकारका है... इन आठ भेदमें से यहां इस सूत्रमें बहुत करके उपयोगात्मा का अधिकार है... शेष द्रव्यात्मादि सात प्रकार आंशिक रूपसे उपयोगी बनेंगे इसलीये यहां दर्शाये गए हैं... तथा इस शरीरमें मेरा आत्मा है... कि जो इन दिशा या विदिशाओंसे मनुष्यगति आदि कर्मोके उदयसे मनुष्यगति आदि चारों गतिओं में आता-जाता रहता है... पाठांतरमें ऐसा अर्थभी होता है कि दिशा या विदिशाओंमें गमन और अठारह भावदिशाओं से हुआ आगमनको जानता है... स्मरण करता है... अब सूत्रके पदोंसे हि पूर्वोक्त अर्थका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- सभी दिशा या विदिशाओंसे में आया हूं... ऐसा जो स्मरण करता है... वह मैं आत्मा हं... ऐसा कहने से पूर्वाद दश दिशा... अठारह प्रज्ञापक दिशा तथा अठारह भाव दिशाओंका यहां यथासंभव कथन किया गया है... नि. 64 __इसी बातको नियुक्तिकार तीन गाथाओंसे कहते हैं कि- कोइक जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करता हुआ अवधिज्ञान आदि चार प्रकारकी स्वमतिसे जानता है अथवा अतिशयज्ञानीओंके पास सुनकर जानता है, या ज्ञापक याने तीर्थकरके उपदेशसे जानता है... कि- जीव है, और पृथ्वीकाय आदि 6 जीवनिकाय है...