Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 74 卐 1-1-1-3 // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उनके नाश के साथ चेतना या आत्मा का नाश मानते हैं / उनके विचार में आत्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है / परन्तु कुछ विचारक आत्मा को पांच भूतों से अलग मानते हैं और उस के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते हैं / इसी विचारभेद के आधार पर आस्तिकवाद और नास्तिकवाद इन दो वादों या दर्शनों की परंपरा सामने आई / इन उभय वादों का विचार प्रवाह कब से प्रवहमान है, इसका पता लगा सकना ऐतिहासिकों की शक्ति से बाहिर है / फिर भी आगमों एवं दर्शन ग्रंथों के अनुशीलन-परिशीलन से इतना तो स्पष्ट है कि दोनों विचारधाराएं हजारों, लाखों, करोडों वर्षों से प्रवहमान हैं / यह हम देख चुके हैं कि नास्तिक दर्शन आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को नहीं मानता है / परन्त, आस्तिक दर्शन आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते है / और इस तथ्य को भी मानते हैं कि आत्मा अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार ऊर्ध्व, अधो या तिर्यग् दिशाओं में जन्म लेता है / स्वर्ग और नरक की निरापद-सुखद एवं भयावह-दुःखद पगडण्डियों को तय करता है / और तप, ध्यान, स्वाध्याय एवं संयम आदि आध्यात्मिक साधना के द्वारा अनंत काल से बंधते आ रहे कर्म बंधनों को समूलत: उच्छेद करके निर्वाण-मुक्ति को भी प्राप्त करता है / परन्तु नास्तिकवाद इस बात को नहीं मानते / उनकी दृष्टि में यह शरीर ही आत्मा है। इसके नाश होते ही आत्मा का भी विनाश हो जाता है / शरीर के अतिरिक्त अपने कृत कर्म के अनुसार स्वर्ग-नरक आदि योनियों में घूमने वाली तथा कर्म बंधन को तोड़कर मुक्त होने वाली स्वतन्त्रा आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं हैं / किंतु जैन दर्शन को यह बात मान्य नहीं है / जिनमत कहता हैं कि- आगमों के प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाणों एवं आत्म-अनुभव से सिद्ध आत्मा के अस्तित्व को स्पष्ट शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है / आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करनेवाला सबसे बलवान प्रमाण स्वानुभूति ही है / व्यक्ति को किसी भी समय अपने खुद के अस्तित्व में संदेह नहीं होता। किंतु आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति उसे प्रतिक्षण होती रहती है / जब कोई नास्तिक व्यक्ति यह कहता है कि " मैं नहीं हूं" तो उसके इस उच्चारण में यह बात स्पष्ट ध्वनित होती है कि मेरा (आत्मा का) अस्तित्व है / " मैं नहीं हं" इस वाक्य में 'मैं' का अभिव्यक्त करने वाला कोई स्वतंत्र व्यक्ति है / क्यों कि जड में 'मैं' को अभिव्यक्त करने की ताकत है नहीं और यह केवल शरीर भी * मैं ' को अभिव्यक्त नहीं कर सकता / यदि अकेले शरीर में 'मैं' को अभिव्यक्त करने की शक्ति हो तो यह थरीर तो मृत्यु के बाद भी विद्यमान रहता है / परंतु चेतना के अभाव में वह अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त नहीं कर सकता / तो इस से स्पष्ट है कि “मैं” को अभिव्यक्त करने वाली शरीर में स्थित शरीर से अतिरियत कोई शक्ति विशेष है और वही शक्ति चेतना है, आत्मा है / तो ' मैं नहीं हूं' इस वाक्य से भी आत्मा के अस्तित्व की ही सिद्धि होती है / आत्मा के अस्तित्व का स्पष्ट बोध होने पर भी उससे इन्कार करना वह ऐसा है-जैसे कि लोगों में यह