Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ // 1-1-1-34 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आत्म-द्रव्यमें आत्म-बुद्धि उत्पन्न होती है, अतः आत्माका स्वरूप पर-वस्तुसे हि निश्चित कीया जाता है, न कि स्वरूप मात्र से... चतुर्थ विकल्प भी पूर्वकी तरह समझ लीजीयेगा... कितनेक लोग नियति से हि आत्माका स्वरूप स्वीकारते हैं यह नियति क्या है ? इस प्रश्नके उत्तरमें कहते हैं कि- वस्तु- पदार्थोंका अवश्यमेव होनहार जो भाव-स्वरूप है, उसमें मुख्य कारण नियति हि है... कहा भी है कि- नियतिके बलसे जो वस्तु- पदार्थका संयोग होना है वह शुभ हो या अशुभ किंतु मनुष्योंको वह संयोग अवश्य होता हि है... और जीव कितना भी प्रयत्न करे तो भी नहि होनेवाला भाव = पदार्थ कभी भी नहिं होता है, और होनेवाले भावपदार्थ का नाश नहिं होता... कितनेक लोग स्वभाव से हि संसारकी व्यवस्थाको मानते हैं.... प्रश्न- यह स्वभाव क्या है ? उत्तर- वस्तु- पदार्थका स्वरूप से हि तथा प्रकारके परिणाम का जो भाव, उसे स्वभाव कहते हैं... कहा भी है कि- कांटेको तीक्ष्ण कौन करता है ? पशु और पक्षिओंमें विभिन्नताओंको कौन बनाता है ? इन प्रश्नोके उत्तर में कहते हैं कि- यहां सभी संसारकी परिस्थितिओंमें स्वभाव हि कारण है... और कोई भी प्रयत्नको यहां अवकाश नहिं है... स्वभाव से हि कार्योंमें प्रवृत्त एवं स्वभावसे हि कार्योंसे निवृत्त लोगोंमें "मैं कर्ता नहि हुं" ऐसा जो देखता है वह हि वास्तवमें देख रहा है... मृगलीओंकी आंखोमें कौन काजल लगाता है ? मयूरकी पंखको कौन सुशोभित करता है ? कमलकी पंखडीया कौन बनाता है, और कुलीन पुरुषोंमें विनय-गुण कौन रखता है ? इन सभी प्रश्नोका उत्तर... स्वभाव से हि यह सब कुछ होता है... कितनेक लोग कहते हैं कि- यह जीव आदि सभी पदार्थ ईश्वर से हि उत्पन्न हुए है, ईश्वरसे हि संसारका यह स्वरूप बनाया गया है... प्रश्न- यह ईश्वर कौन है ? उत्तर- अणिमा आदि ऐश्वर्यवाला यह ईश्वर है... कहा भी है कि- अज्ञानी यह जीव अपने आपको सुखी एवं दुःखी नहि बना शकता है, किंतु यह जीव ईश्वरकी प्रेरणासे हि नरक में या स्वर्गमें जाता है...