Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 70 卐१-१-१-3卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आत्मा परतः भी नहिं है... अथवा सभी पदार्थोंका पर याने दूसरा भाग नहि दिखता है, और आगेका भाग सूक्ष्म होनेके कारणसे दोनों हि भागकी प्राप्ति नहिं होने से सर्व प्रकारसे वह वस्तु प्राप्त नहि होती, अतः “आत्मा नहिं है" ऐसी नास्तित्वकी विचारधारा चलती है... तथा यदृच्छासे भी आत्माका अस्तित्व नहिं है... प्रश्न- यदृच्छा यह क्या है ? उत्तर- पूर्व संकेत विना वस्तुकी प्राप्तिको यदृच्छा कहते हैं... कहा भी है कि- काक-तालीय न्याय याने काकका तालके साथ जो अभिघात - अथडाना हुआ वह बुद्धिपूर्वक नहिं था, बस इसी हि तरह- जीवोंको विविध प्रकारसे सुख या दुःखका होना बिना सोचे हि होता है... हां यह सत्य है कि- हम पिशाच-लोग वनमें निवास करते हैं किंतु भेरी = नगारे को हाथसे अडते भी नहिं है, फीर भी... "भेरी को पिशाच बजातें हैं" ऐसी जो लोकमें चर्चा = बात होती है वहां यदृच्छा हि कारण मानना चाहिये... जीस प्रकार “काकतालीय" व्यायमें बिना बुद्धि-प्रयोगसे हि होनहार होनेकी संभावना बताइ है... यहां न तो कौवे को ऐसी समझ है कि- ताल मेरे उपर गिरेगा... और ताल-फलको भी ऐसा बिचार नहिं है कि- मैं कौए पे गिरुं, किंतु तो भी वह बनाव वैसा हि होता है और कौवा मर जाता है.... ठीक ऐसी हि अन्य भी कहावतें कही गई है... 1. अजा - कृपाणीयम् - बकरीका वहांसे निकला (गुजरना) और बरछी - तरवार का गिरना... यहां अचानक हि बकरीके गले पे तरवार गिरती है, बकरी मर जाती है... 2. आतुर - भेषजीयम् - आदमीको रोग होना और दवाइ से आरोग्य पाना... 3. अंध - कंटकीयम् - अंधे का मार्ग में चलना और अंधेके पैर में कांटा चूमना... इत्यादि अनेक कहावतें स्वयं हि समझ लीजीयेगा... बस इसी हि प्रकार इस संसारमें जीवोंका जन्म - बुढापा एवं मरण आदिका होना, लोकमें यादृच्छिक हि माना है... काकतालीय-न्याय के तुल्य हि समझीयेगा... इसी प्रकार नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा से भी “आत्मा नहिं है" ऐसा समझीयेगा... अब अज्ञानवादीओंके 67 भेद कहते हैं... वे इस प्रकार... जीव आदि नव पदार्थ और