Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐 1 - 1 - 1 - 2 // - (3) चारित्र - मोह के क्षयोपशम से (4) तप - अनशनादि 12 भेद (4) वीर्य - योग प्रवर्तन - पुरुषार्थ (E) उपयोग - मतिज्ञानादि का उपयोग... प्रश्न पूछा जा सकता है कि जब प्रत्येक आत्मा ज्ञानस्वरूप है, तब फिर अनेक जीव अज्ञ-मुर्ख क्यों दिखाई देते हैं ? यह हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि आत्मा ज्ञानयुक्त है। शान के अभाव में उसका अस्तित्व रह ही नहीं सकता / जैसे सूर्य की किरणें एवं प्रखर प्रकाश सदा उसके साथ रहता है / जब बादल छा जाते हैं या राहु का विमान उसे प्रच्छन्न कर लेता है, तब भी रजत-रश्मियें उस सहस्ररश्मि से अलग नहीं होती उनका अस्तित्व उस समय भी बना रहता है / परन्तु बादलों एवं राहु के विमान का कालिमामय गहरा आवरण होने से सहसरश्मि-सूर्य का प्रखर प्रकाश हमें दिखाई नहीं देता / इतना होने पर भी उसके अस्तित्व का पता लगता रहता है / भले कितने ही घन घोर बादल क्यों न छाए हों, उनमें से छन्छन कर आता हुआ मन्द 2 प्रकाश दिन की प्रतीति करा ही देता है / इसी तरह ज्ञानावरणीयकर्मवर्गणा के पुद्गल परमाणुओं के आवरण के कारण आत्मा का अनन्त ज्ञान भानु प्रच्छन रहता है / कभी-कभी यह आवरण इतना गहरा हो जाता है कि आत्मा अपने पूर्व स्थान को ही भूल जाती है, अनेक जीवों की स्मरणशक्ति या जानने-पहचानने की ताकत बहुत कम रह जाती है / परन्तु आत्मा में ज्ञान का सर्वथा अभाव कभी नहीं होता / उसकी थोड़ी बहुत झलक पड़ती ही रहती है / अनन्त काल के लम्बे एवं विस्तृत जीवन में एक भी समय ऐसा नहीं आता कि ज्ञानदीप सर्वथा बुझ जाए / इसी कारण उसका लक्षण उपयोग बताया गया है / क्योंकि वह सदा सर्वदा आत्मा में रहता है और आत्मा के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता / यह बात अलग है कि ज्ञानावरणीय कर्म के उदय एवं क्षयोपशम के कारण आत्मा में इसका अपकर्ष एवं उत्कर्ष होता रहता है / जब ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होता है. तब इसका अपकर्ष दिखाई देता है / इसी बात को सत्रकार ने प्रस्तुत सत्र में दिखाया है कि ज्ञान का अधिक भाग प्रच्छन्न हो जाने के कारण कई जीवों को इस बात का परिबोध नहीं होता कि मैं पूर्व दिशा से आया हूं या पश्चिम आदि दिशा-विदिशाओं से आया हूं / 'दिसाओ' इस पद का अर्थ है-दिशाएं / दिशाएं तीन प्रकार की होती है-१-उर्ध्वदिशा, २-अधोदिशा, और 3-तिर्यदिशा / उपर की और को उर्ध्व-दिशा, नीचे की और को अधोदिशा और इन उभय दिशाओं के मध्य भाग को तिर्यदिशा कहते हैं / तिर्यदिशा-पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा के भेद से चार प्रकार की है / जिस और से सूर्य उदित होता है, उसे पूर्वदिशा कहते हैं / जिस और सूर्य अस्त होता है, उसे पश्चिमदिशा कहते हैं / सूर्य के सम्मुख खड़े होने पर बांए हाथ की और उत्तर दिशा है और दाहिने हाथ की तरफ दक्षिण-दिशा है। इस तरह ऊर्ध्व और अधो दिशा में उक्त चार तिर्यग् दिशाओं को मिला देने से 6 दिशाएं होती हैं / इसके अतिरिक्त चार विदिशाएं भी होती हैं, जिन्हें सूत्रकार ने 'अणुदिशाओ' पद से