Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ 60 1 - 1 - 1 - 2 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अभिव्यक्त किया है, जिन्हें १-ईशान कोण, २-आग्नेय कोण, 3-नैर्ऋत्य कोण और ४-वायव्य कोण कहते हैं / उत्तर और पूर्वदिशा के बीच के कोण को ईशान कोण कहते हैं / पूर्व एवं दक्षिणदिशा के बीच का कोण आग्नेय कोण के नाम से जाना-पहचाना जाता है / दक्षिण और पश्चिम का मध्य कोण नैर्ऋत्य कोण के नाम से प्रसिद्ध है / और पश्चिम तथा उत्तर दिशा के बीच का कोण वायव्य कोण के नाम से व्यवहृत है / मेरु पर्वत को केन्द्र मानकर इन सभी दिशा-विदिशाओं का व्यवहार किया जाता है / इस तरह ऊर्ध्व और अधो दिशा, चार तिर्यग् दिशाएं और चार विदिशाएं कुल मिला कर 2+4+4=10 होती हैं / परंतु नियुक्तिकार ने इस मान्यता से अपना भिन्न मत भी उपस्थित किया है / उन्होंने सर्वप्रथम दिशा के द्रव्य और भाव दिशा ये दो भेद किए हैं और तदनन्तर दोनों के अठारह-अठारह भेद किए हैं / 18 द्रव्य दिशाओं का वर्णन इस प्रकार किया है पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चार दिशाएं हैं / इन चारों के अंतराल में चार विदिशाएं हैं / चार दिशा और चार विदिशा इन आठ के मध्य में आठ और अंतर हैं / इस प्रकार ये सोलह दिशाएं बनती हैं और उक्त 16 में ऊर्ध्व और अधो दिशा, ये दो दिशाएं मिला दें तो कुल अठारह दिशाएं बनती हैं / ये समस्त द्रव्य दिशाएं हैं / नियुक्तिकार ने भाव दिशाएं भी 18 बताई हैं / मनुष्य, तिम्रञ्च, काय, वनस्पति, देव और नारक इनकी अपेक्षा से भाव दिशा के 18 भेद किए हैं / यथा-मनुष्य चार प्रकार के हैं-१-सम्मूमि मनुष्य, २-कर्मभूमि मनुष्य, 3-अकर्मभूमि मनुष्य और ४-अंतर्दीपज मनुष्य। तिर्यञ्च के भी 4 भेद होते हैं-१-द्वीन्द्रिय, २-श्रीन्द्रिय, 3-चतुरिन्द्रय और ४पञ्चेन्द्रिय / काय के भी चार भेद हैं-१-पृथ्वी काय, २-अप् काय, 3-तेजस्काय और ४वायुकाय / वनस्पति भी चार तरह की होती है-१-अग्रबीज, २-मूलबीज, 3-स्कंध बीज और पर्वबीज / इस तरह चतुर्विध मनुष्य, चतुर्विध तिर्यञ्च, चतुर्विध काय और चतुर्विध वनस्पति कुल मिला कर 4+4+4+4=16 भेद हुए और उक्त सोलह में १-नारक और १-देव मिलने से 18 भेद होते हैं / इन सब को भाव दिशा कहा है / इसका तात्पर्य इतना ही है कि कर्मों से आबद्ध जीव इन्हीं योनियों में यत्र-तत्र परिभ्रमण करता रहता है / इसलिए इनको भाव दिशा कहा है / ___"अण्णायरीओ वा दिसाओ" का अर्थ है-अन्यतर दिशा से / इसका तात्पर्य इतना ही है कि पूर्व-पश्चिम आदि उक्त दिशाओं में से किसी भी एक दिशा से आया हूं / उक्त वाक्य से शास्त्रकार ने पुनः उन सभी दिशाओं की और समुच्चय रूप से संकेत कर दिया है / या यों भी कह सकते हैं कि उक्त समस्त दिशाओं के बीच किसी भी दिशा से इस भाव को प्रस्तुत वाक्य से अभिव्यक्त किया है /