Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-1-1-2 // जीवमें हि किया गया है... इस प्रकार भाव-दिशाएं अठारह (18) प्रकारसे है... ___ यहां सामान्यसे दिशा का ग्रहण किया है, तो भी जिस भाव दिशामें जीवोंकी कर्मानुसार गति एवं आगति होती है, उन भाव दिशाओंका यहां अधिकार है, अतः इन भाव दिशाओंका स्वरूप नियुक्तिकार स्वयं हि कहते हैं... ... यह भाव-दिशा जीवोंसे अविनाभावी संबंधवाली है अतः इस आचारांग सूत्रमें भावदिशा का हि अधिकार है, और इस भाव दिशाको समझनेके लिये हि अन्य सभी दिशाओंका विचार किया है... नि. 61 प्रज्ञापक की अठारह (18) दिशाएं होती है, और भाव दिशा भी अठारह (18) कही - है... अब प्रज्ञापक की 18 दिशाओंके साथ 18 भावदिशाका अनुसंधान करने से 18 x 18 - 324 दिशाएं होती है... इस उपलक्षण (पद्धति) से ताप-दिशाओंके साथ भी यथासंभव अनुसंधान हो शकता है... क्षेत्रदिशामें तो केवल चार महादिशाओंमें हि आवागमन संभव है, विदिशाओं में नहिं, क्योंकि- विदिशाएं एक-एक प्रदेशकी हि होती है... यह दिशाओंका समूह "अण्णयरीओ दिशाओ' इस पदके कारणसे हि संग्रहित कीया है... सूत्रके अवयवका अर्थ इस प्रकार है- यहां दिशा शब्दसे प्रज्ञापक की चार दिशाएं, पूर्वादि चार एवं उर्ध्व-अधोदिशाओंका ग्रहण कीया है... भावदिशाएं तो अठारह हि है, और अनुदिशा शब्दसे प्रज्ञापक की बारह विदिशाएं ग्रहण की है... इस विषयमें असंज्ञी जीवोंको यहां कोई भी प्रकारका ज्ञान नहिं होता है, जबकि-संज्ञी जीवोंमें कितनेक को ज्ञान होता है, और कितनेकको यह ज्ञान नहिं होता है कि- मैं यहां किस दिशासे आया हूं ?... ___ इस प्रकारसे यहां इस द्वितीय सूत्रका उपसंहार करते हुए कहते हैं कि- इस प्रकार कितनेक (कई) जीवोंको यह ज्ञान नहिं होता है कि- मैं कोन सी दिशा या विदिशासे आया हुं... नि. 3 कितनेक जीवोंको ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशमसे यह ज्ञान होता है, और कितनेक . ज्ञानावरणीयकर्मके आवरणवाले कितनेक जीवोंको यह ज्ञान नहिं होता है, वह इस प्रकार क्या मैं गये जन्ममें मनुष्य था ? इससे भाव दिशाका ग्रहण किया है...