Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1 - 1 - 1 - 1 ज 33 - सूत्र को प्रारम्भ करते समय मंगलाचरण तो नहीं किया गया है / “सुयं मे आउसं !" -आदि पाठ लिख कर सूत्र आरम्भ कर दिया गया है / इस से ऐसा लगता है कि यहां सूत्रकार ने पुरातन परंपरा को नहीं निभाया है ? नहीं, ऐसी बात नहीं है / यदि गहराई से सूत्र का अनुशीलन-परिशीलन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जायगा कि ग्रंथ के आरम्भ में मंगलाचरण किया गया है / यहां मंगलाचरण के रूप में श्रुतज्ञान का उल्लेख किया गया है। अनुयोगद्वार सूत्र के पहले सूत्र में कहा है कि पांच ज्ञानों में से श्रुत ज्ञान को छोड़ कर शेष चार ज्ञान स्थापने योग्य हैं / क्योंकि, पांच ज्ञानों में श्रुतज्ञान विशेष उपकारी है, श्रुतज्ञान को उपकारी इसलिए माना गया है कि तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित मार्ग का बोध श्रुतज्ञान के द्वारा होता है / क्योंकि, श्रुत-आगम में ही उनके प्रवचनों का संग्रह है / श्री भगवती सूत्र शतक 20, उद्देशक 8 में गौतम स्वामी के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए, भगवान ने फरमाया है-“हे गौतम ! तीर्थंकर प्रवचन नहीं, निश्चित रूप से प्रावचनिक होते हैं, द्वादशांगी वाणी ही प्रवचन है" / और इसी द्वादशांगी वाणी को श्रुत कहते हैं / इसे सुन-पढ़ कर तथा तदनुसार आचरण करके जीव सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त होता है / सर्व कर्म बन्धन से मुक्त-उन्मुक्त होने के लिए तीर्थंकरों की वाणी एक प्रकाशमान सर्चलाइट है / यही कारण है कि पांच ज्ञानों में श्रुतज्ञान को उपकारी माना गया है / और वीतराग-वाणी होने के कारण श्रुतज्ञान मंगल है, अतः उस का मंगल रूप से ही उल्लेख किया गया है / . दशवैकालिक सूत्र में धर्म को सर्वोत्कृष्ट मंगल माना है / और स्थानांग सूत्र में जहां दस धर्मो का वर्णन किया गया है, वहां श्रुत और चारित्र का धर्म रूप से उल्लेख किया गया है / और टीकाकार ने इस का विवेचन करते हुए श्रुत और चारित्र धर्म को प्रमुखता दी है। . . क्योंकि, श्रुत धर्म मंगल रूप है / __ आचाराङ्ग का पहला सूत्र है-"सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं" ! इस सूत्र में श्रमण भगवान महावीर के वचनों को अङ्कित किया गया है / "श्रुतमिति श्रुतज्ञानं" मैंने सुना है, यह श्रुत ज्ञान है / यह हम पहले ही बता चुके हैं कि तीर्थंकरों की वाणी को श्रुत ज्ञान कहा गया है / और प्रस्तुत सूत्र-मैंने सुना है कि उस भगवान-श्रमण भगवान महावीर ने ऐसा कहा है, यह तीर्थंकर भगवान की ही वाणी है / अतः प्रस्तुत सूत्र श्रुतज्ञान होने से मंगल रूप है / ऐसे देखा जाए तो सम्पूर्ण आगम-शास्त्र ही मंगल रूप है / क्योंकि, वह ज्ञान रूप है और ज्ञान से हेय और उपादेय का बोध होता है तथा साधक हेय वस्तुओं का त्याग करके उपादेय को स्वीकार करता है / इससे कर्मोकी निर्जरा होती है और एक दिन आत्मा कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है / कहा भी है कि अज्ञानी मनुष्य बल तपस्या आदि अज्ञान क्रिया से जिन पाप कर्मों को अनेक करोड़ों वर्षों में क्षय करता है, उतने कर्मों को तीन गुप्तियों से युक्त ज्ञानी पुरूष एक उच्छ्वास मात्र में क्षय कर देता है / अतः श्रुत ज्ञान मोक्ष का कारण होने से मंगल