Book Title: Acharang Sutram Part 01
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-1-1-1 // 43 कही गई है कि आगम अनादि भी है / क्योंकि ऐसा कोई समय नहीं रहा है, नहीं है और नहीं रहेगा, जब कि द्वादशाङ्गभूत गणिपिटक नहीं था, नहीं है और नहीं होगा / वह तो पहले से था, अब है और अनागत में भी रहेगा / वह ध्रुव है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है / ___ इस कथन का यह तात्पर्य नहीं है कि अनन्त काल से चले आ रहे, अनन्त तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट आगमों की भाषा एक ही थी, जो शब्द-भाषा वर्तमान में उपलब्ध आगमों में मिलते हैं, वे ही शब्द उन आगमों के थे / इसका अर्थ इतना ही है कि भाषा में अन्तर होते हुए भी भावों में समानता थी / वास्तविक दृष्टि से विचारा जाए तो सत्य एक ही है, सिद्धान्त एक ही है / विभिन्न देश, काल और पुरुष की अपेक्षा से उस सत्य का उद्भव अनेकतरह से होता रहा है, परन्तु भाषा के उन विभिन्न रूपों में एक ही त्रैकालिक सत्य अनुस्यूत रहा है / उस कालिक सत्य की और देखा जाए, और देश-काल एवं पुरूष की अपेक्षा से बने आविर्भाव की उपेक्षा की जाए, तो यही कहना होगा कि जो भी तीर्थकर, अरिहन्त राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके-सामायिक-समभाव, विश्ववात्सल्य, विश्वमैत्री का और विचार के त्रैकालिक सत्य-स्याद्वाद-अनेकान्तवाद या विभज्यवाद का ही उपदेश देते हैं / आचार से सामायिक की साधना एवं विचार से अनेकान्त-स्याद्वाद की भाषा का तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट आदेश अनादि अनन्त है, कर्तुत्व से रहित है / ऐसा एक भी क्षण नहीं मिलेगा कि विश्व में इस सत्य का स्रोत नहीं वह रहा हो / अतः इस अपेक्षा से द्वादशांग, गणिपिटक-आगम अनादि-अनन्त हैं। बृहत्कल्प भाष्य में एक स्थल पर कहा गया है कि भगवान ऋषभ देव आदि तीर्थंकरों और भगवान महावीर की शरीर-अवगाहना एवं आयुष्य में अत्यधिक वैलक्षण्य होने पर भी. उन सब की धृति, संघयण और संस्थान तथा आन्तरिक शक्ति-केवल ज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाए तो उन सब की उक्त योग्यता में कोई अन्तर न होने के कारण उनके उपदेश में, सिद्धान्त प्ररूपण में कोई भेद नहीं हो सकता / आगमों में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि सभी तीर्थंकर वज्रऋषभनाराच संघयण और समचउरस संस्थान वाले होते हैं और संसार में सभी तत्त्वों को, पदार्थों को तथा तीनों काल के भावों को समान रूप से जानते-देखते हैं। अतः उनके द्वारा की गई सैद्धान्तिक प्ररूपणा में कोई भेद नहीं होता / सभी तीर्थंकरों के उपदेश की एकरूपता का एक उदाहरण प्रस्तत सत्र में भी मिलता है / उसमें लिखा है कि "जो अरिहन्त भगवान पहले हो चुके हैं, जो भी वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे. उन सभी का एक ही उपदेश-आदेश है कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव, सत्त्व की हिंसा मत करो उनके उपर अपनी सत्ता मत जमाओ, उन्हें परतन्त्र एवं गुलाम मत बनाओ और उनको संतप्त , मत करो, यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और विवेकशील पुरुषों ने बताया है'। जब व्यावहारिक दृष्टि से यह देखते हैं कि वर्तमान में उपलब्ध आगमों का आविर्भाव